यह जानते ही विरूढक आपे से बाहर हो गया। ‘इन लोगो ने मेरे पिता को भी धोखा दिया और अब मेरा भी अपमान कर रहे है’ यह कहते हुए उसने संपूर्ण शाक्य समुदाय का ही नाश कर दिया। संक्षेप में यह उस समय के गणतंत्रों के मध्य के प्रेमसंबंधों, विश्वास तथा प्रजातंत्र की स्थिति को दर्शाने वाली एक कहानी है।
यह गणतंत्र लम्बे समय तक बने नही रह सके। अपनी आन्तरिक दुर्बलता के अतिरिक्त प्रत्येक गणतंत्र को अपनी सामुदायिक श्रेष्ठता का अहंकार था। किस सीमा तक इनकी अशिष्टता की स्थिति थी उसे दर्शाने हेतु बौद्ध ग्रंथ से एक प्रकरण समझना ही काफी होगा –
लिच्छवि गणतंत्र की राजधानी वैशाली में ‘अभिषेक सरोवर’ नामक एक झील थी। लिच्छवियों के लिए यह एक पवित्र स्थान है, उनका मानना था कि इसके जल स्नान से वे पवित्र हो जाते हैं। जब कभी कोई लिच्छर्वि प्रमुख मर जाता था तो परम्परानुसार उसी के परिवार का कोई अन्य सदस्य उसका स्थान ग्रहण करता था किंतु इस पद् ग्रहण को पूर्व वह ‘अभिषेक सरोवर’ में परम्परा के अनुसार पवित्र होने के लिए जीवन में पहली और अंतिम बार इस झील में स्नान करता था क्यों कि उनके लिए यह झील एक पवित्र स्थान थी।
इस पृष्ठ भूमि में, मल्लगण के बंधुला की पत्नी मल्लिका इस झील पर जाकर जलक्रीड़ा का आनन्द प्राप्त करना चाहती थी। उसका कहना था कि ‘यह एक गर्भवती महिला की इच्छा है’ । मल्ल तथा लिच्छवि दोनो गणतंत्र से संबंध रखते थे, दोनों ही व्रात्य-क्षत्रिय’ थे, फिर भी बंधुला को अपनी पत्नी की इच्छा पूर्त्ती हेतु वैशाली जाकर युद्ध करना पड़ा। जब मल्लिका स्नानार्थ झील पर अपने पति के साथ पहुंची तो पांच सौ लिच्छवियों के योद्धाओ ने इसका विरोध किया। कहा जाता है कि तब बंधुला ने अपने तीरों से उन सबको मार डाला। जब इस प्रकार की संकुचित मानसिकता उन गणतंत्रों के मध्य विद्यमान थी तब उनके मध्य किसी भी प्रकार के सामंजस्य की अपेक्षा कैसे की जा सकती है और उनके मध्य किस सीमा तक शांति संभव है?
हर गणतंत्र दुर्भावना युक्त राजनीति से ग्रस्त था। यंहा हम बंधुला के मल्ल गणतंत्र का उदाहरण लेते है – बंधुला को अपने गणराज्य का प्रमुख सेनापति बनना था किंतु उसे न चाहने वाले लोगों ने उसका विरोध किया। उन्होने बंधुला के समक्ष लगभग असंभव सी शर्त रख दी। उन्होने कुल्हाडे के आठ हत्थों को एक के बाद एक श्रेणीमें जमीन में गाड दिया और बंधुला से कहा कि उसे अपनी कटार के एक ही वार से इन आठों लकड़ी के हत्थों को एक साथ काट देना होगा। बंधुला मल्लने अपने तीव्र प्रहार से सात हत्थों को तो काट दिया किंतु आठवॉ अपने स्थान पर ही पूर्ववत खडा रह गया। वस्तुतः लकडी के हत्थों को लोहे के टुकडों से भर दिया गया था। जब बंधुला के ही एक शुभेच्छु ने उससे पूछा कि तुम्हारे जैसे साहसी तथा बलिष्ठ व्यक्ति द्वारा तो आठो हत्थे काट दिये जा सकते थे फिर सात हत्थे ही क्यों कट पाये? तब बंधुला बोला “जैसे ही मैने हत्थों पर वार किया, मुझे तीखी आवाज सुनाई दी और मै समझ गया कि हत्थों में धातु भरी है, मै उस एक पल में अपने ही लोगों व्दारा मेरे साथ धोखा करने के भावसे इतना निराश सा हो गया कि उस क्षणांश में वह आठवॉ हत्था बिना स्पर्श पाये पूर्ववत बना रह गया” इस घटना के बाद बंधुला अपने ही गणतंत्र के परम शत्रु प्रसेनजित के पास चला गया और उसकी सेना का प्रमुख सेनापति बन गया[1] ।
गणतांत्रिक व्यवस्था के संदर्भ से देखने पर हम पाते है कि मानवीय प्रकृति की आन्तरिक बुराइयॉ बदलती नहीं है। मात्र गणतंत्र में प्रवेश पाने से एक गधा, घोड़ा नहीं बन जाता है और न हाथी एक बकरा। समय चक्र के अनुसार उपयोगिता के आधार पर हमें भिन्न भिन्न प्रतिरुपों का चयन करना आवश्यक हो जाता है। जब लोग यह सोच सकते है कि पूर्वकाल के सभी राजशाही शासन पुराने और कालातीत हो चुके हैं तो इसी प्रकार की सोच वे गणतांत्रिक शासन के संबंध में क्यों नही कर पाते हैं ?
कृष्ण तथा चाणक्य ने गणतांत्रिक व्यवस्था की दुर्बलताओं को समझ लिया था। कृष्ण ने यादवों की गणतंत्र व्यवस्था की कमजोरियों को देख समझ लिया था कि यह टिकने वाली नहीं है। जैसे ही द्वारका में यादवों का पतन हुआ कृष्ण ने अपने पोते वज्र को मथुरा लाकर वंहा का राजा बना दिया जंहा उसे सबने अपना शासक स्वीकार कर लिया। यदि कृष्ण को वास्तव में ऐसा लगता कि यादव लोग एक सुशासन प्रदान कर सकने में सक्षम हो सकते थे तो संभवतः वे पाण्डवों की ओर उन्मुख ही नहीं होते । कृष्ण अपने ही लोगों को सुशासक बना पाने में सफल नही हो पाये। उच्छृंखल यादवों ने स्वतंत्रता का स्वाद चख लिया था तथा वे निरंकुश सोच के अभ्यस्त हो गये थे। कृष्ण जान गये थे कि इन पर विश्वास नही किया जा सकता है न इनके भरोसे पर कोई दायित्त्व लिया जा सकता है। अतः वे पाण्डवों के प्रति उन्मुख हुए। ऐसा नही था कि पाण्डव पूर्णता प्राप्त लोग थे, उनमें भी अनेक कमियॉ थी फिर भी उनमें धर्म के प्रति अटूट विश्वास का आन्तरिक गुण विद्यमान था। धर्म के प्रति यही दृढ़ समर्पण हमें सम्राट समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य, कुमारगुप्त, स्कंधगुप्त तथा अन्य में देखने को मिलता है, यद्यपि इस से सभी लोग सहमत न भी हों।
चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की प्रतिभा तथा उपलब्धियॉ
कईं ऐतिहासिक प्रमाणों के साथ साथ कुछ सिक्कों से भी ज्ञात होता है कि समुद्रगुप्त की मृत्यु के उपरांत रामगुप्त ने शासन सम्हाला। विशाखादत्त व्दारा रचित नाटक (देवी-चन्द्रगुप्त) जानकारी का अतिरिक्त स्त्रोत है। किंतु संपूर्ण नाटक अब उपलब्द नही है। केवल पांच-छः नाट्य प्रसंग के रुप में ही वर्तमान में यह नाटक उपलब्ध है। शिखर विद्वान डा. वी. राघवन ने अपनी कृति ‘भोज का श्रंगार प्रकाश’ के परिशिष्ट में इन नाट्य प्रसंगों को एक बद्ध किया है।
इस नाटक के अनुसार समुद्रगुप्त का सिंहासन उसके ज्येष्ठ पुत्र रामगुप्त को प्राप्त हुआ जिसने ध्रुवदेवी से विवाह किया था। एक समय जब यह राजसी युगल पहाडी पर छुट्टी मना रहा था तब एक शक राजा ने रामगुप्त को घेर कर उसे बंदी बना लिया। वंहा से निकल पाने का अन्य कोई उपाय न होने से रामगुप्त को फिरौती के रुप में अपनी पत्नी ध्रुवदेवी को उन्हे सौंपने की बाध्यता स्वीकार करनी पड़ी। यह सुन कर ध्रुवदेवी ने स्वयं को घोर अपमानित अनुभव किया। किंतु इसी मौके पर वंहा राजकुमार चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य उपस्थित हो जाता है। स्थिति को समझते हुए वह स्वयं ध्रुवदेवी के वेष में पालकी पर सवार हो जाता है और संघर्ष में शक राजा को मार कर विजयी हो कर लौटता है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]इन सभी प्रसंगों का विवरण बौद्ध ग्रंथों में उपलब्ध है।