अतः उस समय क्या किया जा सकता था जब विदेशी आक्रांताओ ने युद्ध के सारे नैतिक मूल्यों (अर्थात् धर्म) की परवाह किये बिना हिंसात्मक आक्रमण किये। इस्लाम के रक्त रंजित आक्रमणों के समक्ष हमारी सभी युद्ध कौशल की योजनाऍ तथा राजनैतिक अनुमान अनुपयुक्त सिद्ध हुए। अनेक भागों की अपनी विशाल सर्वश्रेष्ठ कृति ‘इंडियन काव्य लिटरेचर’ में विशाखादत्त के मुद्राराक्षस के संबंध में लिखते हुए ए.के.वार्डर कहते हैं –
जब तक भारत में चाणक्य जैसे व्यक्ति आते रहे तब तक उसकी सभ्यता विकसित होती रही तथा म्लेंच्छों के आक्रमणों से सुरक्षित रही, किंतु जब भारत ने सीधे सरल स्पष्टवादी युद्ध नायकों तथा सहृदयता के आदर्श को अपनाया, उसकी सभ्यता का हिंसक आक्रांताओं द्वारा क्रमिक रुप से पतन होता गया[1]
ड्युरेंट का अभिमत कुछ इसी प्रकार का है जिसे उसने अपने अनेक भागों वाले ग्रंथ ‘स्टोरी ऑफ सिविलिजेशन्’ में व्यक्त किया है –
जो कानून का सम्मान करते है उन्हे ही कानून और न्याय संबंधी विषयों पर बोलना चाहिए। उस व्यक्ति को कानून की पुस्तक का संदर्भ देने का क्या लाभ है जो कानून की तनिक भी परवोह नही करता है[2]
सांसारिक आदान – प्रदान वहीं संभव है जंहा कानून और व्यवस्था सुचारु रुप से संरक्षित है, जंहा नेतिक व्यवहार का पालन होता हो, और जंहा लोग सर्वमान्य भाषा का उपयोग करते हो। उस व्यक्ति से हमें क्या प्राप्त हो सकता है जो हमारी भाषा ही नहीं समझता है ? उससे संवाद हेतु अन्य भाषा की आवश्यकता है। ऐसे प्रकरणों में नैतिक तथा ईमानदारी के आचरणों की भाषा से काम नही चलता है क्योंकि वंहा कठोर निर्ममता एक आवश्यकता बन जाती है। महाभारत की दण्ड नीति इसे सुस्पष्ट शब्दो में व्यक्त करती है – “अपराधी को धोखा देकर भी समाप्त करना चाहिए[3]” उपर्युक्त वचन श्री कृष्ण द्वारा दुर्योधन वध के समय कहे गये थे।
हमारे प्राचीन गणतंत्रों के मध्य विवाद
बुद्ध ने गणतांत्रिक तथा राज्यवंशीय दोनों व्यवस्थाओं को समान रुप से स्वीकार कर उन्हे अपना स्नेह प्रदान किया था। उनका स्वयं का संबंध शाक्य गणतंत्र से था। उसकी निकटवर्ती सीमा के पास कोलिय गणतंत्र था। रोहीणी नदी के जल बटवारे के संबंध में इन दोनों गणतंत्रों के मध्य बडा युद्ध हुआ था। बुद्ध इन विभिन्न गणतंत्रों के मध्य होने वाले संघर्षों के स्वयं साक्षी रहे थे। मल्ल गणतंत्र तथा लिच्छवि गणतंत्र के लोग बुद्ध के अनुयायी थे, वहीं दूसरी ओर इन गणतंत्रों की व्यवस्था के प्रबल विरोधी सम्राटगण जैसे कि मगध साम्राज्य का सम्राट अजातशत्रु तथा उसके पिता श्रेण्यक बिंबिसार बुद्ध को उच्चतम सम्मान प्रदान करते थे और उसी प्रकार कौशल नरेश प्रसेनजित तथा उसका पुत्र विरूढक भी बुद्ध को मानते थे।
राजा प्रसेनजित बुद्ध के प्रति इतना सम्मान भाव रखता था कि उसने शाक्य वंश की राजकुमारी से ही विवाह करने का निश्चय कर लिया। किंतु शाक्य लोग रुढ़िवादी तथा संकुचित दृष्टिकोण वाले लोग थे तथा स्वयं को उच्च कुल का मानते थे। उनके अनुसार उनके कुल की लड़की को बाहर विवाह में कैसे दिया जा सकता है ? किंतु प्रसेनजित शक्तिशाली था और उसने शाक्यों को संदेश भेजा कि यदि उसकी ईच्छा की पूर्ति नही की गई तो वह पूरे शाक्य गणतंत्र को ही समाप्त कर देगा। अतः विवश होकर शाक्य लोगों ने स्वीकृति प्रदान करते हुए राजा के साथ विवाह के लिए एक लडकी को चुन लिया।
प्रसेनजित चतुर राजा था। उसने अपने मंत्री से कहा कि “शाक्य लोगों को अपने समुदाय तथा गणतंत्र का बडा अभिमान है। यद्यपि मै बुद्ध का परम भक्त हुं किंतु शाक्य लोग बडे वंशवादी तथा कपटी हैं, मुझे संदेह है कि वे अपने ही कुल की किसी कन्या का विवाह मेरे साथ करेंगे !! तुम्हे इस बात की सत्यता सावधानी पूर्वक जानना होगी ”।
चूंकि शाक्य लोग यह निश्चय कर चुके थे कि वे अपने वंश की राजकुमारी का विवाह प्रसेनजित से नहीं करेंगे अतः उन्होने एक दास्य कन्या को महंगे वस्त्राभूषणों से सजा कर प्रस्तुत कर दिया।
विवाह की मध्यस्थता करने वाले ने कहा “इस कन्या को उसी थाली में अपने पिता के साथ भोजन करना होगा तबही हम इस प्रस्ताव को स्वीकार कर सकते हैं” । शाक्यों के एक प्रमुख महानामा ने दास्य कन्या को अपने समक्ष बैठाकर थाली से कुछ कोर खाये उसके बाद उस कन्या ने थाली के अन्न को अपने हाथों से मिलाना प्रारम्भ किया, इसी बीच अचानक एक पत्रवाहक महानामा के पास आया और महानामा ने अपने बांये हाथ में पत्र लेकर पढना प्रारंभ कर दिया तथा तद्नुसार निर्देश दिये कि क्या किया जाना है और क्या नही, इस पूरे समय में वह अपने दॉये हाथ से चावल मिलाता रहा जब तक कि उस कन्या ने पूरी थाली का अन्न खा लिया।
प्रसेनजित का मंत्री यही समझता रहा कि दोनो लोग एक साथ भोजन कर रहे हैं किंतु महानामा के कुछ कोर खाने के बाद केवल लडकी ही भोजन करती रही और महानामा ने एक भी कोर मुँह में नही डाला। प्रसेनजित का भोला मंत्री इस चतुराई को समझ नहीं पाया। उनके संदेह का निवारण हो गया था और समझ रहे थे कि कन्या शाक्य कुल की ही है।
उस कन्या का विवाह राजा प्रसेनजित से हुआ और उनके पुत्र का नाम विरूढक था। अपनी किशोरावस्था में विरूढक एक बार अपने नाना के घर गया। “यह दासीपुत्र है इसे हम अपने बराबरी का सम्मान कैसे दे सकते है? यदि हमारे बच्चे इसके साथ मिलेजुले तो उनका आध्यात्मिक पतन हो जावेगा”, ऐसा सोचकर समुदाय के प्रमुखों ने विरूढक के सम उम्र सभी बालक बालिकाओं को अन्यत्र भेज दिया। केवल छोटे बच्चे और प्रौढ़ लोग बचे और उनसे विरूढक का मनोरंजन कैसे होता ? कुछ ही दिनों में क्षुब्ध होकर विरूढक वापस कौशल लौट गया।
किंतु परिवार का एक सदस्य भूलसे अपना कुछ सामान पीछे छोड आया था अतः वह फिर से लौट कर आया। वंहा उसे एक वृद्ध महिला ने शिकायती स्वर में कहा कि ‘यंहा एक दासी पुत्र आकर रहा था। मै एक वृद्ध महिला हूं किंतु इस उम्र में भी मुझे इस अपवित्र स्थान को शुद्ध करने का श्रम करना पड़ रहा है क्योंकि उसके यंहा रहने से यह स्थान अपवित्र हो गया है’। इस जानकारी के प्राप्त होते ही उस पारिवारिक सदस्य ने इसकी सूचना विरूढक को दी।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]वार्डर ए.के., इंडियन काव्य लिटरेचर भाग 3 पृष्ठ 277, मोती लाल बनारसीदास, (1990)
[2]यस्य प्रमाणं न भवेत्प्रमाणं कस्तस्य कुर्याद्वचनं प्रमाणं” सुभाषित रत्न भण्डारागार, पृष्ठ 391, पद्य 570
[3]मायावी मायया वध्यः