सनातन धर्म अगणित समस्याओं के श्रेष्ठ निदानों का अनमोल खजाना है। उदाहरण के लिए ‘संकल्प’ पर विचार करें जिसे हम अपने दैनिक पूजा पद्धति की एक क्रिया के रुप में करते हैं। इसमें हम वर्तमान दिन के साथसाथ ब्रह्माण्डिय काल को स्वीकारते है, अपने निवास स्थल के साथ साथ हम ब्रह्माण्डिय देश को भी स्वीकारते है। हम कहते है “शुभे शोभने मुहूर्ते आद्य-ब्रह्मणः द्वितिया-परार्धे” से लगा कर ‘कर्मकाण्ड़ करने के दिन तक। उसी प्रकार ब्रह्माण्ड से प्रारम्भ कर ‘जम्बूद्वीपे भारतवर्षे भरतखण्डे गोदावर्याः दक्षिणे तीरे’ तक हम दिक् का स्मरण करते हैं। इसमें एक व्यक्ति अपनी स्थिति और विशिष्ट समय के साथ स्वयं को शाश्वत काल और दिक् की ब्रह्माण्डिय स्थिति से जोड़ लेता है। हमारी परम्परा में यह सब सहज ही तरीके से संपन्न हो जात है।
ऐसी विवेक पूर्ण परम्परा से जुडे रहने के अलावा हमारे पास और क्या विकल्प हो सकता है? जिस सहजता और स्वाभाविकता से हम सांस लेते है उसी आसानी से हम अपने सीमित अस्तित्व को असीम से जोड़ लेते हैं, हमें इसी धारण को स्थानीय से वैश्विक जगत को जोड़ने हेतु अपने हृदय में जगाना होगा। चाणक्य ने ऐसे ही किसी निदान पर ध्यान दिया था। उसने स्थानीय और क्षेत्रीय पहचान को बिना क्षति पहुंचाये राष्ट्रीय और केन्द्रीय सत्ता को मजबूत किया । अब यह प्रश्न उठता है कि कैसे स्थानीयता का महत्त्व बनाये रखा जा सकता है ? यह तब ही संभव है जब हम क्षेत्र और समुदाय विशेष की स्थापित परम्पराओं का सम्मान करें तथा उससे जुडे वर्ण, श्रेणी, जाति, निगम और पूग आदि सभी पक्षों को दृष्टिगम रखें। यदि हम इन सबको नकारते हैं तो समाज को एक सूत्र में बांधे रखना संभव नही है। इस दृष्टि से हर किसी को एक प्रतकात्मक पहचान की आवश्यकता है और इस संदर्भ में जाति या वर्ण कोई बुराई नही है। जो लोग अंधे होकर इन सिद्धांतों को मिटाने की वकालत करते है उन्होने स्वयं की तर्क संगत बुद्धि को मिटा लिया है।
मै स्वयं वेदांत के अद्वैतवाद का समर्थक हूं। यह मेरा कोई अंधविश्वास नहीं है अपितु मेरे लम्बेकाल के अध्ययन और मनन से जुडे रहने का परिणाम है। मै इससे दृढ़ता से जुड़ा हूं तथा इसका अनुसरण करता हूं। किंतु इस भूत जगत में द्वैत के बिना अद्वैत असम्भव है – तथा अद्वैत के बिना द्वैत अधूरा है। जिस क्षण तक मुझे आग्रह, शंका और सन्देह, देहासक्ति और अंहभाव है, मुझे द्वैत को सम्मान देना होगा। एक व्यक्ति के रुप में मुझे मेरी पहचान के लिए अपने परिवार, स्थान, मोहल्ला, नगर, देश आदि से स्वयं को जोड़ना होगा।
यदि हम खेल का उदाहरण ले – तो रणजीट्रोफी अथवा आई.पी.एल में किसी क्रिकेट टीम का पक्षधर होने का क्या आशय है? यह सब वे तरीके हैं जिससे हम स्वयं की पहचान स्थापित करते हैं। हर कोई चाहे वह पुरुष हो या महिला अपनी पहचान स्थापित करने के प्रयास में कोई न कोई तरीका एक प्रतीक को रुप में अपनाता है। किंतु यदि इस प्रयास में हम अपना संबंध असीम तथा शाश्वत के साथ भी बनाये रखना चाहते है तो हमें हमारा एक पौव यंहा तथा दूसरा वंहा रखना होगा।
यहस्थिति एक गतिज संतुलन की स्थिति है जंहा न कोई भ्रम है और न कोई उतार-चढाव और यह सनातन धर्म में सम्भव है। इसी कारण पूजा और ध्यान की गिरी (बीज) समृद्ध संसार की सक्रियता और गति-शीलता के आवरण को अपनाये रहती है। महादेव और महाविष्णु दोनो ही इसके श्रेष्ठ उदाहरण हैं। दक्षिणामूर्ति के रुप में शिव स्थिर शांत रुप है, वे एक वटवृक्ष के नीचे मौन बैठे है और पूर्ण रुप से प्रशांत स्थिति में है। किंतु नटराज शिव सक्रियता का मूर्तिमान रुप है, सात ताण्डवों में नृत्य करते हुए वे बरगद वृक्ष की नाई सभी दिशाओं में व्याप्त हो जाते है, किसी क्षण धरा को छूते है तो दूसरे क्षण हवा में विविध रुपाकारों को प्रेरणा प्रदान करते है। विष्णु शेषशय्या पर निद्राम्गन है – वे सदा यौगनिद्रा में रहते हैं। विभिन्न अवतार लेकर वे इस जगत में अपनी ‘लीला’ दिखलाते है और मानवजाति की लम्बी यात्रा पर सवार हो जाते हैं। इन दोनो स्थितियों में एक स्थिर है तथा दूसरी गतिमान है।
क्षात्र परम्परा के निर्वहन हेतु ऐसे ही संतुलन की आवश्यकता है। वेदों में यह सिद्धांत दिया गया है। चूंकि चाणक्य ने इस मौलिक सिद्धांत को दृढ़ता से आत्मसात कर लिया था अतः अपने अर्थशास्त्र में उसने सभी प्रकार के सामाजिक तथा प्रशासकीय पक्षो से संबंधित प्रावधानों का उल्लेख किया है। जैसा कि पहले ही यह उल्लेख किया जा चुका है कि वेदो में क्षत्रिय के लिए ‘गोप’ शब्द का उपयोग किया गया है। गोप कहलाने वाले गांव प्रधान से लेकर प्रत्येक ग्राम के प्रधान से लेकर सम्राट तक, चाणक्य ने प्रत्येक की एक नायक के रुप में भूमिका और उसके उत्तरदायित्त्वों को स्पष्टतः वर्गीकृत किया है। ऐसा ही हम हमारे धर्मशास्त्र के साहित्य में भी पाते है। सभी स्थानीय रीतिरिवाज और परम्पराओं का सम्मान करते हुए किसी का भी उलंघन नहीं किया जाना चाहिए।
वर्तमान संदर्भ में यदि लोग परम्पराओं की उपेक्षा कर बिना सोचे समझे अंधे की नाई बहु-संस्कृतिवाद के गीत गाते रहे तो जिस प्रकार भारतीय प्राचीन गणतंत्रो का तथा ग्रीक के शहरीराज्यों का नाश हुआ उसी प्रकार हमारे देश का भी नाश हो जायेगा।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.