इन सबमें अद्धितीय भार्गववंशी परशुराम थे। वे ब्राह्म-क्षात्र समन्वय के श्रेष्ठ प्रतीक है। परशुराम द्वारा दुष्ट क्षत्रियों की सुव्यवस्थित विनाश लीला का वर्णन पुराणों में दिया गया है। शास्त्रानुसार आपद्धर्म[1] के रुप में हर कोई क्षात्र धर्म धारण कर सकता है।
महान संत विद्वान विद्यारण्य अपनी पाराशर-स्मृति की टीका में कहते है कि प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन काल में कभी न कभी क्षात्र भाव को धारण कर सकता है। परशुराम ने इक्कीस बार पृथ्वी पर से दुष्ट क्षत्रियों का नाश किया आर उन्होने जो भी संपदा अर्जित की, उसे अन्त में कश्यप ऋषि को समर्पित कर जिसे बाद में योग्य क्षत्रियों को भेंट में दे दिया गया था।
कुछ लोग परशुराम को क्षत्रिय विरोधी मानते हैं तथा उनके युद्ध को एक ‘जाति उन्मूलन’ का कृत्य बतलाते है। यद्यपि वे दुष्ट क्षत्रियों के विरुद्ध तन मन से लडे न की धर्म परायण क्षत्रियों से। यदि ऐसा न होता तो वे भीष्म को क्यों प्रशिक्षण देते? कुछ पुराणों में तो यह कथन भी है कि कृष्ण ने सुदर्शन चक्र तथा अन्य अस्त्र शस्त्र परशुराम से प्राप्त किये थे।
परशुराम से पहले दो महान ऋषि च्यवन तथा और्व हुए हैं। च्वयन इतने शक्तिशाली थे कि उन्होने इन्द्र को भी चुनौती दे दी थी। उन्होने ही अश्विनी कुमारों (आरोग्य के देवता) को सोमयाग का भाग अर्पण किया था। जब भृगुकच्छ (आज का भडूच) के निवासी भागवों को हैहय वंशी क्षत्रिय राजाओं (पश्चिमी नर्मदा प्रांत के शासक) द्वारा सताया गया, मारा गया तथा भगाया गया, उस समय पलायन करनेवाली एक गर्भवती महिला ने अपनी संतान की सुरक्षा हेतु अपनी जंघाओं में छुपा लिया था। उसका वही पुत्र और्व[2] कहलाया जिसने दुष्ट क्षत्रियों को हरा कर प्रसिद्धि प्राप्त की। अंत में देवताओं तथा पूर्वजों के आग्रह पर उसने अपने क्रोध को समुद्र में फेंक दिया – परिणामतः सामुद्रिक ज्वालामुखियों के फटने से जो अग्नि उत्पन्न हुई वह और्वाग्नि कहलाई। इससे स्पष्ट है कि भृगुवंशजो में किस सीमा तक क्रोध तथा शक्ति का संचय था। यह सब ही लोग अथर्व वेद के ज्ञाता थे। उन्होने अग्नि को अपना कुल देवता माना था।
अपने महाभाष्य में महान ऋषि पतंजलि बतलाते हैं कि अथर्व वेद की नौ शाखाएँ हैं। इनमें से कई विलुप्त हो गई है। वर्तमान में मात्र दो शाखाएँ हैं। इनमे से एक ‘शौनकीयशाखा’ मौखिक परम्परा का निर्वाह करती है तथा दूसरी ‘पैप्पलाद शाखा’ ग्रंथ रुप में उपलब्ध है। शेष शाखाएँ जिन क्षेत्रों में प्रचलित थी, वे अब पाकिस्तान और अफगानिस्तान में है। यही क्षेत्र अथर्ववेद के गृहक्षेत्र थे जंहा भृगुवंश ने सामरिक स्थानों पर शासन करते हुए भारत को सुरक्षा प्रदान की थी। इस्लामिक आक्रांताओ के प्रचण्ड प्रहारों से अथर्व वेद की अनेक शाखाए समाप्त हो गई।
क्षात्र कर्म का कौशल
वेदो में क्षत्रिय के लिए अनेक वैकल्पिक शब्दों का प्रयोग किया गया है। जैसे – गोप, पशुप, राजन्य, शर्धा एवं व्रात । संसकृत में ‘गो’ के दस अर्थों में से एक ‘पृथ्वी’ है। अन्य अर्थ में संपदा ज्ञान इत्यादि है। इनमे से एक अर्थ ‘इन सबका पोषण कर्त्ता’ भी है। अनेक प्रसंगों में इन्द्र को ‘गोपति’ कहा गया है। ‘गुप’ से ‘गोप्ता’ शब्द की उत्पत्ति हुई है। गोप और गोप्ता शब्दो का उपयोग जब भी क्षत्रिय के लिए किया गया है तो वह धर्म के दार्शनिक तत्त्व के पोषण कर्त के रुप में किया गया है। ‘पशुप’ शब्द का उपयोग ‘गोरक्षक’ के रुप में पशुपालन, व्यापार खेती इत्यादि के सन्दर्भ में मुख्यतः किया गया है।
रघुवंश की प्रथम दो पदावलियों में कालिदास ने नंदिनी गाय की कथा का वर्णन किया है। किस प्रकार राजा दिलिप ने प्राणपण से नंदिनी के निकट रहते हुए उसकी रक्षा की, इसका वर्णन करते हुए कालिदास लिखते है – ‘जैसे वे गाय के रुप में पृथ्वी की रक्षा कर रहे थे[3]’। गाय की तरह ही पृथ्वी भी अनेक तरह से हमारे लिए उपयोगी है। पृथ्वी भी एक मां की भांति हमारी देखभाल और पोषण करती है जैसे कि एक गाय, अतः क्षात्र का मूल कर्त्तव्य इनकी सुरक्षा और पोषण करना है।
इस संदर्भ में हमें भागवतपुराण के राजा पृथु का स्मरण कराया जाता है जिन्होने गाय रुपी पृथ्वी का कोमलता पूर्वक दोहन कर संपदा अर्जित की थी। जब दुष्ट राजा वेण अपनी प्रजा को सतत रुप से सताता रहा तो प्रजाजनों के लिए वेण पर आक्रमण कर उसे हराना आवश्यक हो गया। अथर्ववेद में दुष्ट राजा का उसी की प्रजा के आक्रमण से विनाश का वर्णन है। राज्य के लोगों के लिए पूर्वकाल में ‘महाजन’ शब्द प्रयुक्त होता था। प्रजा शब्द का उपयोग बाद में किया जाने लगा। जन शब्द का उद्भव ‘जनयन्तीति जनाः’ अर्थात ‘वे लोग जो राजा को जन्म देते है’। प्रजा शब्द ‘प्रकृष्टतया जाताः’ अर्थात ‘नागरीक गण राजा की संतान है’। पहले कहा गया कि राजा अपने लोगों की संतान है और बाद में उन्ही लोगों को राजा की संतान बतलाया गया। यंहा दो स्थितियॉ है – ‘हम क्षत्रियों से सुरक्षा पाते है’ तथा ‘हम ही क्षात्र को जन्म देते है’। यह दो परस्पर अन्तरविरोधी लगते हैं लेकिन विरोध नहि है । राजा की प्रजा से प्राप्ति तथा प्रजा की राजा से प्राप्ति-ठीक वैसा ही है जैसे समुद्र से वर्षा तथा वर्षा से समुद्र का पारस्परिक पोषण।
इन्द्र को पशुप कहने का सांकेतिक अर्थ यह भी है कि राजा की शक्ति उसके द्वारा पशुओं के पोषण तथा सुरक्षा द्वारा प्राप्त होती है। शर्धा शब्द का अर्थ ‘मरुतों के साथ रहने वाला साहसी’ होता है। इन्द्र ने मरुतों से प्रेम तथा प्रशंसा प्राप्त की थी। रामायण में इसका विस्तृत विवरण है। मरुतों का क्षात्रभाव रुद्रों से बहुत साम्य रखता है। इस संदर्भ से पशुप तथा शर्धा शब्द से क्षत्रिय शब्द ही परिलक्षित होता है।
यजुर्वेद के अन्य भागों के अतिरिक्त भी कृष्ण यजुर्वेद (तैतरिया संहिता 7.5.19) में ‘आब्रह्मन् ब्राह्मणो ब्रह्मवर्चसी जायताम्’ जैसे मंत्र दिये गये है। ऐसे मंत्र अश्वमेध काण्ड के अंग है। इस मंत्र में एक पंक्ति है - ‘अस्य यजमानस्य वीरो जायताम्’, इसमें प्रार्थना की गई है कि प्रत्येक घर में वीरों का जन्म हो। अन्य प्रार्थना में ‘जिष्णू रथेष्ठाः’ – रथी अर्थात् विजयी योद्धाओं का जन्म हो।
बाद के कुछ काल में जैन तथा बौद्ध वैचारिक शाखाओं के उद्भव के साथ अहिंसा को अत्यधिक महत्त्व प्रदान करने के कारण क्षात्रभाव निष्प्रभावी हो गया था।
महिलाओं में क्षात्र चेतना
ऐसे अनेक प्रसंग है जो महिलाओं में क्षात्र भाव दर्शाते हैं। उदाहरणार्थ रामायण में कैकेयी का प्रसंग है। जब राजा दशरथ देवासुरसंग्राम में भाग लेने गये थे तब कैकेयी उनके साथ थी। इसी युद्ध में उसने राजा दशरथ से दो वचन प्राप्त किये थे।
महाभारत में सुभद्राहरण प्रसंग में जब अर्जुन पर यादवों की बड़ी सेना ने आक्रमण कर दिया और अर्जुन अकेले ही उनका सामना कर रहे थे तब सुभद्रा ने स्वयं अर्जुन के रथ की डोर सम्हाल कर बडी कुशलता से रथ संचालन किया था।
मनु के अनुसार प्रत्येक वर्ण के लिए निर्धारित कर्त्तव्यों की सीमा में, पुरुषों तथा महिलाओं को सभी कलाओं और विज्ञान को सीखने का समान अवसर और अधिकार है। इतिहास में इसके कईं उदाहरण है। जब भारत पर सिकंदर ने आक्रमण किया था तो पहले पुरुषों ने उस आक्रमण का सामना किया तथा बाद में महिलाओं तथा बच्चों ने भी इस युद्ध में भाग लिया था।
अर्थशास्त्र तथा अन्य ग्रंथो से हमें जानने को मिलता है कि एक सैन्य-प्रशिक्षण प्राप्त अंगरक्षको की सैन्य इकाई पूर्णतः महिलाओं से युक्त थी। इतिहास दर्शाता है कि ऐसी सैन्य इकाइयों में ग्रीक तथा रोम की महिलाएँ भी शामिल थी। विशाखादत्त के नाटक ‘मुद्राराक्षस’ द्वारा ज्ञात होता है कि चंद्रगुप्त मौर्य की अंगरक्षक शोणोत्तरा नाम की एक महिला थी। अनेक महिलाएँ रक्षकों के रुप में प्रशिक्षित थी। ऐसे अनेक उदाहरण है जंहा महलों के अन्तःपुर में रण कौशल में प्रशिक्षित महिलाएँ नियुक्त थी। यहा तक कि पारम्परिक, उत्तर पारंपरिक तथा उपनिवेश काल में भी हम अनेक महिलाओं के क्षात्र भाव को देखते हैं। इनमें रुद्रमादेवी, अक्कादेवी, भैरादेवी, बिदनूर की चेनम्माजी, कित्तूर की चेनम्मा, गौंड देश की दुर्गावती अहिल्या बाई होल्कर, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, तमिलनाडु की वेलूनाच्चियार और नागालेण्ड की गायदिनलु के नाम प्रमुखता से याद किये जाते है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]विपरीत परिस्थितियों मे इसका पालन किया जा सकता है
[2]ऊरु से जन्म लेली इसलिये उसका नाम और्व रखा गया
[3]जुगोप गोरूपधरामिवोर्वीम् (रघुवंश 2.3)