कालिदास की क्षात्र चेतना
कवि शिरोमणि महाकवि कालिदास ने अपनी सर्वश्रेष्ठ कृति ‘रघुवंश’ में यह पूर्णतः स्पष्ट किया है कि किस प्रकार एक साम्राज्य में क्षात्र को पोषित किया जाना चाहिए और साम्राज्य की समृद्धि हेतु किस तेजस्विता की आवश्यकता है। कालिदास ने दिलिप तथा रघु जैसे महान राजाओं और अग्निवर्ण जैसे चरित्र हीन तथा अयोग्य राजाओं की तुलना करते हुए स्पष्ट किया कि किन नैतिक सिद्धांतों का पालन करना आवश्यक है।
राजा रघु ने चारोंदिशा में विजयपताका फहराते हुए दूर दूर तक अपनी विजय का डंका बजाया। रघुवंश के अनुसार ‘जो अपनी प्रजा को सुख-सुविधा प्रदान करे वही राजा है[1]’ – इस उक्ति को रघु ने चरितार्थ किया। रघुवंश के अनुसार ‘जो दूसरों की क्षति तथा संकट से सुरक्षा करे वह क्षत्रिय है[2]’- इस उक्ति को चरितार्थ करने वाले आदर्श क्षत्रिय राजा दिलिप के सुपुत्र राजा रघु थे।
यंहा महाकवि ने राजा तथा क्षत्रिय शब्दो की व्युत्पत्ति प्रस्तुत की है। राजा दिलिप, रघु, अज, राम, कुश, अतिथि एवं अन्य राजाओं के माध्यम से महाकवि ने विस्तार से स्पष्ट किया है कि धर्म और अर्थ के मानदण्ड़ों के आधार पर किस प्रकार क्षात्र को होना चाहिए। अतः कोई आश्चर्य नहीं कि हमारी परम्परा में ‘रघुवंश’ एक अमर कृति का स्थान पा चुका है।
अपनी दूसरी श्रेष्ट रचना ‘कुमारसम्भव’ में कालिदास ने तेज तथा ब्राह्म-क्षात्र की प्रतिमूर्ति शिव महादेव की कथा लिखी है। शिव द्वारा मन्मथ के विनाश का वर्णन करते हुए कवि – राजा से राजर्षि बनने के दार्शनिक तत्त्व पर प्रकाश ड़ालता है। रघुवंश में अग्निवर्ण के उदाहरण द्वारा कवि स्पष्ट करता है कि कैसे एक अयोग्य राजा को प्रजा अस्वीकार कर उसका विनाश कर देती है।
अपनी अन्य रचनाओं में अर्थात् ‘मालविकाग्रिमित्र’, ’विक्रमोर्वशीय’ तथा ’अभिज्ञान शाकुन्तल’ में भी कवि ने क्षात्र भाव की महत्ता तथा उसकी उपेक्षा करने पर आने वाले संकटों का वर्णन किया है । सच्ची वीरता तथा दुष्टों क दमन का महत्व अद्भुत रीति मे वर्णन किया है ।
कलाओं तथा कविताओं में क्षात्र चेतना
केवल कालिदास में ही नहीं अपितु अनेक संस्कृत के कवियों में क्षात्र चेतना देखी जा सकती है। बाण कवि की श्रेष्ठ कविता – ‘हर्षचरित’, भारवि का महाकाव्य- ‘किरातार्जुनिय’ जो राजनीति से परिपूर्ण है, माघ कवि का ‘शिशुपालवध’ जिसमें स्पष्ट किया गया है कि किस प्रकार परमात्म तत्त्व, दुष्टों के विनाश हेतु साकार रुप में अवतरित होते है, शूद्रक का ‘मृच्छकटिक’ जिसमें दर्शाया गया है कि किस प्रकार प्रजाजन मिलकर एक अयोग्य राजा के अपदस्थ कर देते हैं, विशाखादत्त के ‘मुद्राराक्षस’ में ब्राह्म-क्षात्र सामंजस्य के अनुपम वर्णन तथा ‘देवी चन्द्रगुप्त’ (अपूर्ण पाठ उपलब्भ है) में प्रतिकूलताओं में भी क्षात्र की उत्कृष्ट अडिगता का वर्णन है। भवभूति द्वारा राम के शौर्य और साहस की पुनर्रचना, साथ ही बिल्हण, दण्ड़ी, गंगादेवी, कल्हण, जोनराज, श्रीवर, रामभद्र और विज्जिका जैसे अन्य कवियों के उदाहरण दिये जा सकते हैं। यह सभी कविगण साहस, शौर्य और शक्ति के महत्त्व को जानते थे। इनमें से किसी ने भी कायरता अथवा निरर्थक शांतिवाद का पाठ नही पढ़ाया फिर भी कोई इन पर हिंसा प्रेमी अथवा युद्ध पिपासु होने का आरोप नही लगा सकता है। यह सब कविगण अतिसुसंस्कृत तथा संतुलित मानसिकता से युक्त थे।
इसी प्रकार का सत्त्व पोषित क्षात्र हम भारत की अन्य भाषाओं के साहित्य में भी स्पष्टता के साथ देख सकते हैं। निम्नलिखित कवियों की रचनाएँ इसका ज्वलंत उदाहरण है – प्रवरसेना, वाग्पतिराज, पंपा, रन्न, कपिलार, कालमेघ कवि, तिक्कन, एर्रन, चंन्दबरदाई, वल्लुवर, अडिगल तथा संगम कविताओं के पुरम में प्रमुख रुप से शौर्य को स्थान दिया गया है। यंहा तक कि हरिहर, कुमारव्यास, लक्ष्मीश, पोतन, कंब, कृत्तिवास तथा सरलदास जैसे भक्ति मार्ग के विविध भाषी कवियों में भी वीर रस को महत्त्व प्रदान किया गया है।
उदाहरणार्थ कन्नड़ में कुमार वाल्मीकि के तोरवे-रामायण में युद्ध काण्ड, सभी काण्डों को एकसाथ मिलाने के बाद भी उनसे बड़ा है। कलाक्षेत्र में भी क्षात्र को महत्त्व प्रदान किया गया है। कर्नाटक की पारम्परिक नाट्यकला के ‘यक्षगान’ में युद्ध संबंधी विषय वस्तु का ही बाहुल्य है। तेरुक्कूत्तु, कत्थकली, चाऊ (पुरुलिया, मयूरभंज और सराय केला) रामलीला जैसी नाट्य कलाओं में भी क्षात्र का प्रशंसात्मक प्रदर्शन किया जाता है। इसके अतिरिक्त अन्य साहित्थिक विधाओं जैसे जनपदीय कविताओं में, लोकगीतो में, लावणियों में, बुर्राकथा में, रासो इत्यादि में साहस तथा शौर्य भाव को प्रोत्साहित किया जाता है।
भारतीय कविता और कलाओं की शोध संबंधी मानदण्डों का प्रारम्भ भरत मुनि के ‘नाट्यशास्त्र’ से होता है जिससे हमें कला संबंधी विस्तृत दृष्टिकोण प्राप्त होता है। नाट्यशास्त्र में चार पुरषार्थ-अर्थात् वीररस द्वारा धर्म और अर्थ एवं श्रंगार तथा शांतरस द्वारा काम और मोक्ष दिये गये है। वास्तविक जीवन में तथा कला में श्रंगार तथा वीर रस की प्रमुख भूमिका रहती है। यह भी ब्राह्म-क्षात्र सामंजस्य का एक उदाहरण है।
भक्तिमार्ग में भी जंहा प्रभू के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ गहन भावनात्मक संबंध जोडते हुए सभी के प्रति प्रेमभाव होता है, वंहा भी हमारे संतों तथा ऋषियों द्वारा वीर-भक्ति की धारण को अंगीकृत किया गाया है और इस प्रकार भक्ति में भी क्षात्र भाव को स्थान दिया गया है।
ऋषियों की वंश परम्परा में क्षात्र चेतना
ऋषियों के वंशो में हमारी परम्परा में भृगुवंश (अथवा भार्गव वंश) सर्वोपरि है। देश की भौतिक समृद्धि बढ़ाने वाले प्रमुख नेताओं में भार्गव का भी नाम है, यंहा तक कि उन्होने अलौकिक संपदा प्राप्ति के प्रयास भी किये। आयुर्वेद के संस्थापकों में से एक च्यवन ऋषि, ऋषि कवि कलाकार शुक्राचार्य जो अर्थशास्त्र मर्मज्ञ तथा युद्ध कौशल में पारंगत थे, ऋषि दधिचि जिन्होने वैश्विक कल्याणर्थ देह का बलिदान कर दिया तथा अन्य महान ऋषिगण इसी भृगुवंश के वंशज है। ब्रह्म-विद्या के प्रारम्भिक प्रतिभावान ज्ञाताओं में ऋषि पिप्पलाद का नाम आता है जो दधिचि के पुत्र थे।
भृगु ऋषि इतनी उच्च अवस्था को प्राप्त थे कि उनके समक्ष देवतागण भी कांपते थे। न्यायशास्त्र के प्रवर्तक अक्षपाद कहते हैं कि यह ऋषिगण उच्च प्रज्ञा तथा तीव्र तार्किक शक्ति से संपन्न थे। भृगुवंश के महान ऋषि वंशजो ने अपने अथक प्रयासों से अनेक वैश्विक कल्याण के कार्य जैसे खेती, पशुपालन, व्यापार, समुद्रयात्रा तथा कलाक्षेत्र में विविध कार्य योजनाओं को संपन्न किया। ऐसा माना जाता है कि विष्णु शेषशय्या पर समुद्र में-जो भृगुवंश के अधिपत्य में रहा है, अपनी पत्नी लक्ष्मी (भार्गवी) के पितृनिवास पर घर-जमाई के रुप में शयन करते है। भृगुवंशियों ने विधर्मी हैहय समुदाय से सतत रुप से संघर्ष किया है।
भार्गवों के समान ही अंगीरा ऋषि की वंश परम्परा है। इसमें भारद्वाज ऋषि का नाम प्रमुख है। वे अनेक वैश्विक तथा अलोकिक विधाओं के मर्मज्ञ थे। दीर्घतमस ऋषि जो दर्शनशास्त्र तथा अध्यात्म विद्या के प्रचण्ड़ ज्ञाता थे, वे भी इसी वंश के थे। देवताओं के आध्यत्मिक गुरु, अंगीरस पुत्र ऋषि बृहस्पति, देवताओं की क्षात्र शक्ति के ब्राह्म आधार थे। उसी प्रकार शुक्राचार्य जो भार्गव वंशज थे वो असुरों के क्षात्र शक्ति के ब्राह्म आधार थे ।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]राजा प्रकृतिरञ्जनात् (रघुवंश 4.12)
[2]क्षातात्किल त्रायत इत्युदग्रः क्षत्त्रस्य शब्दो भुवनेषु रूढः… (रघुवंश 2.53)