इसी शौर्य भाव को हम ऋषि विश्वामित्र में भी देखते हैं जिन्होने राम को क्षात्र दीक्षा प्रदान की थी। एक महर्षि बनने से पूर्व विश्वामित्र ने ब्राह्म के साथ संघर्ष करते हुए ब्राह्म के कठिन पथ के महत्व का अनुभव कर, ब्राह्म क्षात्र समन्वय की महत्ता को समझा। अपने इस अनुभव के उपरांत वे सदैव सत्य के पथ पर चलते हुए अन्ततः आचार्य के पद पर प्रतिष्ठित हुए। परशुराम जो स्वयं एक ब्राह्मण थे, क्षत्रियों से लड़ते हुए क्षात्र में गहराई से सराबोर थे। वे भी अपने इस कृत्य की व्यर्थता को समझ कर आत्मबोध के मार्ग पर अग्रसर हुए। विश्वामित्र को वशिष्ठ ने तथा परशुराम को राम ने यथार्थ का मार्ग दर्शन दिया। समय के साथ सदैव ही ब्राह्म तथा क्षात्र का संयोजन होता रहा है।
महर्षि वाल्मीकि ने इन महान लोगों के श्रेष्ठ गुणों को पहचाना और उन्हे लिखा है। रामायण की ज्योतिर्मय माला का अमूलरत्न हनुमान है जिसने प्रतिशोधी, कामातुर, इच्छापूर्ति में संलिप्त बाली द्वारा क्षात्र को भ्रष्ट करनेवाले आचरण को रोकने में तथा सज्जन, संयमी सुग्रीव को पुनः राज्य दिलवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया था। अपनी बुद्धिमत्ता तथा शक्ति से, निस्वार्थता तथा गहरी समझ द्वारा उन्होने सही अर्थो में ब्राह्म-क्षात्र के समन्वयकारी विवेक को अपने जीवन द्वारा मूर्तिमान कर दिया। इसे हम सुन्दर काण्ड़ में व्यापक रुप से तथा युद्ध काण्ड़ में भी देख सकते हैं। इसी प्रकार लक्ष्मण, भरत, अंगद और विभिषण जैसे बडे योद्धा भी क्षात्र चेतना को अपने ढंग से व्यक्त करते है।
महाभारत में क्षात्र चेतना
महाभारत को ‘जय’ भी कहा गया है। वेदव्यास जय शब्द से क्षात्र का संकेत देते हैं। महाभारत मे धर्म तथा अधर्म के दो विपरीत चरम ध्रुव है। व्यास दुर्योधन को ‘क्रोध से व्याप्त एक बृहद्वृक्ष[1]’ तथा युधिष्ठिर को ‘धर्म से व्याप्त एक बृहद्वृक्ष[2]’ की संज्ञा दी है। इसका अन्तर निहित अर्थ यह है कि क्षात्र का स्थापन धर्म आधारित हो जिससे वह एक बृहद्वृक्ष के समान विश्व का पोषण शांतिपूर्ण तरीके से कर सके।
भारतीय दर्शनशास्त्र की मीमांसा शाखा के अनुसार किसी भी रचना का समालोचात्मक अध्ययन, षड़लिंग कहे जाने वाली छः विशेषताओं के आधार पर किया जाता हैः-
- उपक्रम - उपसंहार (प्रारम्भ से अंत तक रचना की बोधगम्यता/संबद्धता)
- अपूर्वता - भौलिकता
- अभ्यास - प्रमुख विषय वस्तु का पुनरावर्तन
- फल - कार्य का परिणाम
- अर्थवाद - प्रशस्ति
- उपपत्ति - साक्ष्य पुष्टि
जब हम महाभारत का उपर्युक्त दिशा निर्देशन के आधार पर परीक्षण करते है तो उसके प्रत्येक पक्ष में हमें क्षात्रभाव के दर्शन होते है।
महाभारत का प्रारम्भ जनमेजय के सर्प-याग से होता है। सर्प याग में दुष्ट सर्पों का संहार होता है किंतु जब यह सभी सीमाओं को लांघ जाता है तब आस्तिक मुनि आकर इसे समाप्त करवाते हैं। महाभारत में हम हर कदम पर देखते हैं कि जब भी क्षात्र का क्षय होने लगता है तब विश्व पर संकट आता है। हमें यह कभी भूलना नहीं है कि शांतिवादिता तथा चरम आक्रामकता दोनो ही क्षात्र विरोधी हैं। इतिहास साक्षी है कि इन दोनो प्रकार की प्रवृत्तियों से क्षात्र-विरोधी तीव्र हिंसा का उदय हुआ है। क्षात्र सदैव शांति स्थापना का पक्षधर रहता है – वह न तो अहिंसा का और न हिंसा का अंधानुयायी है।
शान्तनु की इच्छा, भीष्म की प्रतिज्ञा, पाण्ड़वों का जन्म, द्रुपद तथा द्रोण का मनमुटाव, द्रोपदी स्वयंवर, जरासंध वध, राजसूययज्ञ, गोग्रहण की घटना तथा कुरुक्षेत्र का युद्ध – इन सभी अवसरों पर हम क्षात्र भाव के निर्वहन के महत्त्व को देखते हैं।
उद्योग पर्व में वृद्धावस्था में भी निड़र कुंती द्वारा अन्यतम क्षात्रभाव दर्शाया गया है। हस्तिनापुर में चचेरे भाइयों में शांति स्थापना की मध्यस्थता करते हुए जब कृष्ण अपने प्रयास में विफल हो जाते है तब कुंती ने कृष्ण द्वारा जो संदेश अपने पुत्रों को भेजा था वह विश्व साहित्य में सुन्दरतम साहसिक कवितांश का स्थान प्राप्त करने योग्य है। कुंती ने विदुला का स्मरण कराया जिसने रणभूमि से अपने भीरु पुत्र संजय के भाग आने पर उसमें साहस का संचार कर उसे पुनः रणक्षेत्र में भेज दिया था। कुंती ने कृष्ण को कहा कि वे इस कहानी का स्मरण उसके पुत्रों को करवा दे। अंत में कुंती ने यह अविस्मरणीय शब्द कहे –
“जिस कारण से एक क्षात्र नारी अपनी संतान को जन्म देती है उसे पूरा करने का समय आ गया है[3]” – इस अत्यंत प्रभावकारी पंक्ति ने लोगो के मन में क्षात्रभाव को साक्षात रुप में स्थापित कर दिया
संपूर्ण उद्योग पर्व क्षात्र से ओतप्रोत है। शांतिवार्त्ता हेतु जाने से पहले कृष्ण द्वारा भीम का उपहास कर उसे उकसाना, कोरवों से युद्ध करनें में पाण्ड़वों की विमुखता देख द्रोपदी द्वारा कठोर शब्दो में उनकी भर्त्सना करना, कृष्ण द्वारा द्रोपदी को आश्वस्त करना कि उसकी इच्छानुसार युद्ध होगा और उसे जीता मिलेगा – इत्यादि ऐसे प्रसंग हैं जो इस तथ्य की पुष्टि करते हैं।
अनेक बार युधिष्ठिर की क्षात्र विमुखता का भीम, द्रोपदी, कृष्ण एवं कुंती द्वारा प्रतिकार किया गया जिससे साहस तथा नेतृत्त्व भाव के महत्त्व को स्पष्ट किया गया है[4]
महाभारत में देवासुर संग्राम की अलौकिक कहानियॉ है, गरुड़ और सर्पों का अमानुषिक युद्ध है तथा कौरव-पाण्डवों के मानवीय युद्ध का वर्णन है – जिसमें क्षात्र परम्परा की उपादेयता और महत्त्व को रेखांकित किया गया है। इसमें शौर्य तथा साहस युक्त जीवन का अत्यंत भव्य चित्रण किया गया है।
भगवद्गीता में कृष्ण ‘क्षात्र’ का ही उपदेश दे रहे हैं। कृष्ण के प्रारम्भिक वचन निम्नानुसार हैं –
“हे अर्जुन ! इस असमय में तुझे यह मोह (कायरता) किस हेतु से प्राप्त हुआ है? यह न तो श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है और न स्वर्ग को देनेवाला है, न कीर्ति प्रदान करने वाला है[5] इसलिए नपुसंकता को प्राप्त मत हो !! तुझमें यह उचित नही है !! हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर युद्ध के लिए खड़ा हो जा[6] !!”
जब कृष्ण, महान धनुर्धर अर्जुन को अपने विधर्मी शत्रुओं का वध करने हेतु प्रेरित करते हैं[7] तो वे क्षात्र की महिमा को ही समझाते हैं। कृष्ण के उपदेश को स्वीकार कर अर्जुन अन्ततः कहता है – ‘हे अच्युत ! आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया है और मैने स्मृति प्राप्त कर ली है, अब मै संशय रहित होकर स्थित हूं अतः आपकी आज्ञा का पालन करुंगा[8]’ । और अंत में संजय का यह कथन है – ‘जंहा योगेश्वर कृष्ण है और जंहा गाण्ड़ीव धारी अर्जुन है – वहीं पर श्री, विजय, विभूति और अचल नीति है – ऐसा मेरा मत है[9]’ संजय का उक्त कथन श्री कृष्ण के ज्ञान और अर्जुन की वीरता का यशोगान करते हुए ब्राह्म-क्षात्र समन्वय का श्रेष्ठ उदाहरण है तथा उसके महत्व का पुनरावर्तन करता है। महाभारत में – उसके सार रुप गीता से लगासक पूरे महाकाव्य में ब्राह्म निर्देशित क्षात्र की महत्ता के ही दर्शन होते है।
शांतिप्रिय युधिष्ठिर भी जब युद्ध भूमि में उतरता है तो वह निःसंकोच युद्ध करता है। उसे कृष्ण के उपदेश की भी आवश्यकता नही होती है, इसी प्रकार भीम, नकुल और सहदेव को भी। इससे उनका क्षात्र धर्म के प्रति आमरण समर्पण सिद्ध होता है। महाकाव्य के अंतिम भाग में वनगमन के पूर्व धृतराष्ट्र द्वारा युधिष्ठिर को जो उपदेश दिया गया वह भी धर्म रक्षार्थ क्षात्र के महत्त्व को स्पष्ट करता है। सभी महा काव्यों में हमें इस आदर्श की पुष्टि देखने में आती है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]मन्युमयो महाद्रुमः (महाभारत 1.1.65)
[2]धर्ममयो महाद्रुमः (महाभारत 1.1.66)
[3]यदर्थं क्षत्त्रिया सूते तस्य कालोऽयमागतः (महाभारत 5.88.74)
[4]संदर्भः वनपर्व अध्याय 28, 29, 31, 34, 36, उद्योग पर्व अध्याय 3, 29, 71, 73, 77, 80 तथा शांतिपर्व के पहले 38 अध्याय
[5]कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् | अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन || (भगवद्गीता 2.2)
[6]क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वैय्युपपद्यते | क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ट परंतप || (भगवद्गीता 2.3)
[7]जहि शत्रुम् (भगवद्गीता 3.43)
[8]…स्थितोऽस्मि गतसन्देहः करिष्ये वचनं तव || (भगवद्गीता 18.73)
[9]यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः… (भगवद्गीता 18.78)