पुराणों के लक्षणों को दर्शाने वाला प्रसिद्ध श्लोक जो पुराणों की पांच मुख्य विषयवस्तु का वर्णन करता हैः-
- सर्ग - मुख्य रचन
- प्रतिसर्ग - रचना का विस्तार अथवा प्रलय
- वंश - देवताओं, राजाओं तथा ऋषियो के
- मनवंतर - चौदह मनुओं का समय चक्र
- वंशानुकीर्तनम - वंशो का यशोगान[1]
सार रुप में इस श्लोक द्वारा ब्राह्म तथा क्षात्र के आदर्शों को सतत रुप से संजीवनी प्रदान करते रहने का अभिप्राय है।
पुराणों में अन्य छोटे राजवंशों का भी वर्णन है जैसे मगध केकय, जनक (निमि) और हैहय। इनमें उन वीर योद्धाओं, सेनानायकों, बहादुर लडाकों तथा सुशासकों की असंख्य कहानियों का वर्णन है। यह सभी वर्णन क्षात्र की साक्ष्य है। स्पष्टतः क्षात्र-कर्म का क्षेत्र है जबकि ब्राह्म उतना नही है। ब्राह्म का लक्षण आत्मसंतोष तथा अहं का नाश है। वहीं क्षात्र संपूर्ण विश्व के साथ उसकी सभी गतिविधियों तथा घटनाओं के प्रति सजगता तथा पूर्ण सक्रियता के साथ जुड़ा हुआ है। मानवीय धरोहर के लिए इन दोनों आदर्शों की आवश्यकता है।
इतिहास में क्षात्र चेतना
रामायण तथा महाभारत के गहन मनन से प्रमुखतः यह सार रुप नीतिवचन प्राप्त हो सकते हैं कि सज्जनों की सुरक्षा तथा दुष्टों का नाश करना चाहिए। इतिहास के प्रमुख रसों का अनुसंधान करते हुए महान रसज्ञ तथा विद्वान आनंदवर्धन कहते हैं कि रामायण का प्रमुख रस – करुणा रस है और महाभारत का शान्तरस। मै ऐसा अनुभव करता हूं कि इसके साथ हमारे महाकाव्यों का प्रमुख रस – धर्म-वीर को जोड़ देना अनुचित नही होगा।
नाट्यशास्त्र की अपनी टीका के छठे अध्याय में अभिनव गुप्त ने ‘रस’ का व्यापक विवेचन किया है, उन्होने दर्शाया है कि रस की धारणा हमारी परम्परा के आधार – पुरषार्थ (धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष) से संबंद्ध है। सारी वैश्विक व्यवस्था की स्थापना पुरषार्थ के कारण है, इनमे धर्म, अर्थ तथा काम का त्रिवर्ग क्षात्र आधारित है[2]।
धर्म एक नियमन व्यवस्था है। इसके स्थायित्त्व के लिए हमें ऐसे प्रबंधक की आवश्यकता होती है जिसके द्वारा धर्म, अर्थ तथा काम की स्थापना हो सके। धर्म के द्वारा ही अन्य का महत्त्व है। धर्म के अभाव में अर्थ और काम एक दूसरे को नष्ट कर देते हैं। पूरा विश्व नाश की ओर अग्रसर हो जाता है। धर्म विहीन अर्थ-लोभ[3]में तथा काम-प्रेम[4]के उच्चतम शिखर से नारकीय वासना में पतित हो जाता है।
धर्म, अर्थ और काम – इन तीनों पुरषार्थों का उदय वीर तथा शृङ्गार रस से होता है। धर्म तथा अर्थ के प्रतिनिधित्त्व की शक्ति वीररस में है, अन्य शब्दो में यह धर्मावलम्बित है। महाभारत में[5] धर्म को निम्नानुसार परिभाषित किया गया हैं ।
‘धारणाद्धर्म इत्याहुः धर्म धारयति प्रजाः’
‘जो धारण करे वह धर्म है, वैश्विक जनमानस को धर्म ही धारण किये हुए हैं’
धारण करना अर्थात अवलंबन आश्रय या सहारा प्रदान करना – यह धर्म के लक्षणों में से एक है। धर्म का संबंध शरण, जुडाव तथा सुरक्षा से है और अर्थ का संबंध संपदा तथा समृद्धि से है। अतः धर्म और अर्थ दोनो के लिए क्षात्र आवश्यक है। काम प्राकृतिक रुप से प्रत्येक व्यक्ति में पाया जाता है। कौन है जो कामना रहित है? इच्छाओ को आपूर्ति चाहिए। इच्छा आपूर्ति हेतु किसी व्यवस्था का होना आवश्यक है। ऐसा कौन है जिसे भूख नही लगती कहने मात्र से क्या सबको भोजन मिल जाता है ? भूख पर कोई बाध्यता नही है वह सदैव रहती है किंतु सबके भोजन की व्यवस्था करने वोलों के लिए बाध्यताएँ तथा कठिनायॉ होती ही है। यदि धर्म, अर्थ तथा काम – तीनों का मार्ग सही होतो स्वाभाविक रुप से वे मोक्ष की ओर ले जाते है।
रामायण में क्षात्र चेतना
रामायण में अयोध्या काण्ड़ के प्रारम्भ में राम का वर्णन करते हुए वाल्मीकि कहते हैं – ‘राम ने अपनी रघुवंश परंपरा के अनुकूल क्षात्र धर्म को अत्यधिक गौरवान्वित किया[6]’। इससे भारत द्वारा विश्व को यह संदेश दिया गया है कि अपनी सांस्कृतिक धरोहर पर प्रत्येक को गर्व करना चाहिए। राम हाथी तथा घोडे की सवारी के साथ साथ युद्ध की सभी विधओं और कौशल में पारंगत थे। वे सदा विजयी रहे। वाल्मीकि ने चौबीस श्लोको में राम के शौर्य का गुण गान किया है।
अरण्य काण्ड के प्रारम्भ में – जब ऋषियों ने राम के पास जाकर कहा – ‘राक्षसों द्वारा किये जा रहे उत्पातों को अब हम सहन नहीं कर पा रहे हैं अतः आप आकर हमारी रक्षा कीजिए’, तब राम ने निःसंकोच होकर कहा ‘ऐसा ही होगा’। इस पर सीता ने राम से प्रश्न किया – ‘राक्षसों ने हमे कोई क्षति नहीं पहुचाई है और हम वानप्रस्थ के पथ पर इस जंगल में निवास कर रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि वानप्रस्थ में पाशुक याग (पशुबलि की भेंट) को धान्य याग अथवा आज्य याग (घी द्वारा) रुप में किया जाना चाहिए। इस प्रकार शास्त्रों में वानप्रस्थ में अहिंसा पालन को इस स्तर पर निर्वाह करने के निर्देश हैं और इन राक्षसों का वध करने हेतु हमें बहुत अप्रिय साधन अपनाने होंगे – क्या यह करना उचित होगा ?’
प्रत्युत्तर में राम कहते है – ‘यह आगंतुक धर्म है[7]। इसे हम अपनी इच्छा पूर्ति के लिए नहीं कर रहे हैं। हमने शास्त्रानुसार वानप्रस्थ का मार्ग ग्रहण नहीं किया है, हम मात्र पिताजी के वचनों की रक्षार्थ यंहा यात्री बने हुए है। मूलतः हम क्षत्रिय हैं। हम एक आश्रम से दूसरे आश्रम में अनेक बार आ-जा सकते है किंतु इससे हमारा वर्ण तो नही बदलता है। दुष्टों का संहार करना क्षत्रिय धर्म का ही एक अंग है।’
तब सीता ने अति विनम्रता से निवेदन किया कि उनका आशय मात्र राम को स्मरण कराना था न कि धर्मोपदेश देना, राम का उत्तर था कि ‘यद्यपि तुमने अत्यंत विनम्र शब्दो में कहा है किंतु तुम्हारे कथन का कोई उचित आधार नही है’।
रामायण में हर समय हम राम में धैर्य और साहस के दर्शन करते हैं। रामायण[8]में राम के चारित्रिक वर्णन में जिन विशेषणों का उपयोग किया गया है वे ‘सत्य-पराक्रम, अमोघ-क्रोध-हर्षणः’ को चरितार्थ करते हैं। राम का शौर्य कभी व्यर्थ नहीं गया, उनका क्रोध या हर्ष कभी अकारण नहीं था। यह उनकी वीरता तथा क्षात्र-प्रतिबद्धता को सिद्ध करता है। इसी भावना के दर्शन हम लक्ष्मण तथा हनुमान में भी पाते हैं। राम ने क्षात्र भाव को पुनर्जीवन दिया है जो मारिच, सुबाहु, ताडका, शूर्पनखा, बाली और रावण जैसे दुष्टों द्वारा नष्ट कर दिया गया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1] सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च | वंशानुकीर्तनम् चैव पुराणं पञ्चलक्षणम् || (अमर कोश 185 वाग्-वर्ग)
[2]धर्म का संबन्ध धारण, नैतिक कर्तव्य, गुण इत्यादि से जुडे हुए है | काम का कामना से और अर्थ का कामनापूर्ति के साधनों से संबन्ध है | इन तीनों को जोडके त्रिवर्ग केहलाते है | मोक्ष स्वयं हि एक विशिष्ट वर्ग है - उसे अपवर्ग केहलाते है - मोक्ष संबन्ध मुक्ति, ब्रह्मज्ञान से है |
[3]अरिषड्वर्ग मे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मात्सर्य है
[4]भगवान कृष्ण भगवद्गीता मे जो काम धर्म के विरुद्ध नहि है उसके साथ स्वयं की पहचान करता है |
[5]महाभारत कर्णपर्व 49-50 तथा शांतिपर्व 11.11
[6]कुलोचितमिति क्षात्त्रं धर्मं स्वं बहुमन्यते (रामायण 2.1.16)
[7]यह एक विशेष धर्म है | विशेष परिस्थितियों इसको अपनान धर्म के प्रतिकूल नहि है |
[8]रामायण 1.1.19, 23