क्षात्र की भारतीय परम्परा में राजधर्म के दृष्टिकोण को समझने हेतु यंहा हमारे ग्रंथो से धर्म तथा अर्थ संबंधी कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं – अत्रिस्मृति तथा विष्णु धर्मोत्तर पुराण में निम्न पांच महायज्ञ राजा के कर्त्तव्य हैं –
दुष्टों को दण्ड़, सज्जनों का सम्मान,
न्यायोचित पथ से प्रगति और समृद्धि,
जन आकांक्षाओं और प्रश्नों का पूर्वाग्रह रहित न्यायोचित निर्णय,
भूमि संरक्षण[1]
कौटिल्य अर्थशास्त्र में कहा गया है –
सदैव सक्रिय रहना राजा का व्रत है,
कुशलता से शासन करना राजा का यज्ञ है,
प्रजासे निष्पक्ष व्यवहार – यह राजा द्वारा प्रदत्त दक्षिणा है,
राज्याभिषेक राजा की दीक्षा है,
प्रजा के सुख में राजा का सुख है,
प्रजा की भलाई में राजा की भलाई है,
राजा का हित उसका व्यक्तिगत हित नही है किंतु
पूरी प्रजा के हित में ही राजा का हित है[2]
मनुस्मृति का निम्न निष्कर्ष अत्यंत सटिक है –
“सारे विश्व में व्यवस्था बनी रहने का कारण यह है कि लोग दण्ड़ से ड़रते हैं, पूर्णतः निष्पाप व्यक्त्ति को पाना सरल नहीं है। शासन और नियमों के कारण ही लोग अपने मनमाने कृत्यों से बचते है[3] ” ।
“किंतु यदि राजा अपने दण्ड़ाधिकार का दुरुपयोग करता है तो राष्ट्र का शासन, नियम, सुविधाए तथा समृद्धि का नाश हो जाता है और राजा भी अपने परिवार तथा मित्रों सहित विनाश को प्राप्त होता है[4] ”
उपयुर्क्त धर्म सिद्धांतो के समान अनेक धर्म सिद्धांतो ने भारतीय परम्परा में क्षात्र चेतना की आधार शिला रखी है। जब हम इन निषेधाज्ञाओं पर ध्यान देते है तो हमें अनुभव होता है कि हमारा राष्ट्रीय राजधर्म कितना उदार, साहसी एवं प्रभावशाली रहा है।
धर्मशास्त्र में चार विभाग है – आचार, प्रायाश्चित, व्यवहार तथा दण्ड़ । इनमें प्रथम दो ब्रह्म तथा बाद के दो क्षात्र के अन्तर्गत आते है। राजा सर्वाधिकार संपन्न होता है और साम्राज्य का सम्राट होता है। जब भी कोई धर्मशास्त्र संबंधी समस्या आती है तो इस पर विचार विमर्श कर इसे सुलझाने हेतु बनाई गई समिति को सदस्यों में से एक क्षत्रिय होना ही चाहिए ऐसा शास्त्रकारों द्वारा स्पष्ट किया गया है।
हमारी परम्परा में ‘मधुपर्क’ सम्मान को एक विशिष्ट प्रतिष्ठा प्रदान की गई है। यह एक सादा प्रतीकात्मक सम्मान है। यह निम्न पांच प्रकार के लोगों को दिया जाता है – जो श्रोत्रिय हो, आचार्य हो, आप्तबंधु हो, परमहंस – परिव्राजक सन्यासी हो अथवा स्नातक हो। अतः एक राजा भी इस सम्मान को पा सकता है। मधुपर्क में मेहंगी सामग्री की आवश्यकता नहीं होती है। शहद, दूध, भुने हुए अनाज और दही से मधुपर्क बनाया जाता है[5] । सदियों से इस प्रकार का सामाजिक सम्मान राजाओं को दिया जाता रहा है। संभवतः इन्ही गतिविधियों के कारण हममें क्षात्र के प्रतीक पुरुषों का सम्मान करने की परम्परा का विकास हुआ है। राजा साम्राज्य की सुरक्षा करता है इससे स्वतः समृद्धि तथा शांति की स्थापना हो जाती है।
आज भी क्षात्र परंपरा से संबद्ध अनेक उपनाम प्रचलित हैं – गौडा, गौण्डर, रायडू, नायडू, रेड्डी, मुदलियार आदि। ऐसे भी कई उपनाम है जो शस्त्रो अथवा शस्त्रों पर आधारित है – कटियार, तलवार, रण, नायक, राठोड़, चौहान, सिंह इत्यादि। जाट भी एक सैन्य समुदाय है। सभी क्षत्रियों को एक सामान्य उपनाम वर्मा दिया गया है जिसका अर्थ कवच होता है। इस प्रकार के उपनाम से एक क्षत्रिय पूरे समाज का कवच बन कर उसकी सुरक्षा करने को प्ररित होता है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति है कि आज का तथाकथिय धर्मनिरपेक्ष नेतृत्व ऐसे सभी लोगों को अन्य पिछड़ी जातियों में धकेल रहा है। यह भयंकर संकट है।
पुराणों में क्षात्र चेतना
वेदों और पुराणों में अनेक ऋषियों तथा राजाओं की वंशावलियों का विवरण है। वेदों में अनेक बार पॉच वंश परम्पराओं का प्रसंग आया है – यदु, द्रुह्यु, तुर्वश, पुरु तथा आनु । इनमें पुरुओं ने प्रमुख रुप से हमारे देश पर शासन किया, यदु और तुर्वश उनके अधीन थे। आनु एवं द्रुह्यु वंश के लोगोने अन्यत्र स्थानों पर जाकर अपने राज्यों की स्थापना की। सारांश में इन पांच वंशों अथवा जातियों के लोगो ने पांच पारिवरिक साम्राज्यों का विकास किया। यह सभी चंद्रवंशी थे अतः चंद्रवंशी साम्राज्य से संबद्ध रहे। यदु वंश, चंद्रवंश की एक शाखा थी वहीं भरत (कुरु) साम्राज्य उसकी दूसरी शाखा थी। सूर्यवंशी साम्राज्य भी प्रसिद्ध रहा है। चंद्रवंश तथा सूर्यवंश दोनों का प्रारम्भिक स्रोत एक ही है।
इड़ा/इळा वैवस्वत मनु की पुत्री थी। उसने चन्द्र पुत्र बुध से विवाह किया और पुरूरव को जन्म दिया। पुरूरव से चंद्रवंश प्रारम्भ हुवा क्योंकि वह चन्द्र का पौत्र था – अतः चंन्द्रवंशी वैवस्वत मनु की पुत्री इडा की संतानें है। दूसरी ओर मनु के पुत्र इक्ष्वाकु से सूर्यवंश का उदय हुवा। इन दो मुख्य साम्राज्यों के वंशजो की अनेक कहानियां पुराणों में प्रमुखता से पाई जाती है जिन्होने भारत के इतिहास को साकार किया ।
प्राचीन काल के सभी राजा स्वयं को या तो चंद्रवंश से अथवा सूर्यवंश से जुडा हुआ मानते थे। ऐसा प्रतीत होता है कि इनमें से वे राजा जो भारत के दूरर्थ छोर स्थानों में जन्मे तथा बड़े हुवे अपने अभिमान और महत्व को प्रदर्शित करने के उद्देश्य से स्वयं को इन प्रसिद्ध राजवंशो से जोड़ने के इच्छुक रहे। इसके लिए इन राजाओं का तिरस्कार नही किया जा सकता है क्यों कि भारतीय क्षात्र परम्परा के मूल तथा उसकी महानता से जुडना एक आवश्यकता भी थी। प्रत्येक मनुष्य अपनी उपादेयता और अस्तित्त्व को सार्थकता प्रदान करने का प्रयास करता है अतः इन राजाओं के कृत्य को सुविधा तथा सम्मान वर्धन के प्रयास के रुप में देखा जाना चाहिए। इसके बिना जीवन अर्थहीन और लगभग असंभव सा हो जाता है । स्वयं के उत्कर्ष तथा उत्साह वर्धन के लिए चंद्रवंश अथवा सूर्यवंश एक आवश्यकता है। पारम्परिक परिचय में जब यह कहा जाता है कि ‘कश्यप गोत्र आपस्तंब सूत्रः यजुश्शाखाध्यायी’ – तो व्यक्ति में महान ऋषियों की वंश परम्परा में जन्म लेने का गौरव भाव जागृत होता है जो उसमें सम्मान तथा स्वयं के उत्तरदायित्त्व के भाव का संचार कर देता है और अपने क्रिया कलापों के प्रति अधिक सतर्क कर देता है। अपने दायित्व तथा कर्तव्य बोध को शक्ति और पुनर्जागृति प्रदान करने के लिए हम चन्द्रवंश अथवा सूर्यवंश जैसे वंश/साम्राज्यों की ओर उन्मुख होते है। हमें यह समझना होगा कि इसके द्वारा हमें विश्व में, समाज में, परिवार में अपनी पहचान व्यावहारिक तथा सांकेतिक रुप से भी स्थापित करने में मदद मिलती है। अपने कर्त्तव्य तथा दायित्त्व का बौध भी जागता है। हमारे पुराणों और इतिहास में बार बार इन राजवंशो तथा परम्पराओं का वर्णन आता है जो यह दर्शाता है कि हमें अपनी महान क्षात्र परम्परा के प्रति सदैव सतर्क रहना है।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1] दुष्टस्य दण्डः सुजनस्य पूजा न्यायेन कोशस्य च सम्प्रवृद्धिः । अपक्षपातोऽर्थिषु राष्ट्र-रक्षा पञ्चैव यज्ञाः कथिता नृपाणाम् ॥ (अत्रि-स्मृति 3)
दुष्ट-दण्डः सतां पूजा धर्मेण च धनार्जनम् । राष्ट्र-रक्षा समत्वं च व्यवहारेषु पञ्चकम् । भूमिपानां मह-यज्ञाः सर्व-कल्मश-नाशनाः । (विष्णु-धर्मोत्तर-पुराण 3.323.25, 26)
[2]राज्ञो हि व्रतमुत्थानं यज्ञाः कार्यानुशासनम् । दक्षिणा वृत्ति-साम्यं च दीक्षितस्याभिषेचनम् । प्रजा-सुखे सुखं राज्ञः प्रजानां च हिते हितम् । नात्मप्रियं हितं राज्ञः प्रजानां तु हितं प्रियम् (कौटिलीय अर्थ-शास्त्र 1.19, 20)
[3]सर्वो दण्ड-जितो लोको दुर्लभो हि शुचिर्नरः । दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते (मनु-स्मृति 7.22)
[4]दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धरश्चकृतात्मभिः । धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्दहवम् (मनु-स्मृति 7.28)
[5]मधुपर्क मे मांस का गतिविधि ऐच्छिक है; स्पष्टता के लिये देखिये आश्वलायन-गृह्य-सूत्र 1.22.5-26