शुक्ल यजुर्वेद का एक अन्य श्लोक निम्नानुसार है –
मेरे कंधों में बल है, मेरी बुद्धि में बल है
मेरी बांहो में, मेरे साहस में कर्म भरा है
एक हाथ से कार्य करु, दूजे से शौर्य दिखाऊ
मै स्वयं क्षात्र कहलाऊ[1] ।
इस प्रकार हम अनुभव कर सकते है कि वैश्विक हित में क्षात्र कितना महत्त्वपूर्ण है। यदि कोई क्षात्र भाव से युक्त्त है तो इसका यह अर्थ कदापि नही है कि वह अन्य को क्षति या चोट पहुंचाएगा। क्षात्र भाव हिंसा को प्रोत्साहित नही करता है अपितु इसके विपरीत वह हिंसा को समाप्त करने हेतु कटिबद्ध है। ऋगवेद में इन्द्र की एक साहसी रण-नायक के रुप में प्रशंसा की गई है।
कृष्ण यजुर्वेद में रुद्राध्याय में ऋगवेद के महत्त्वपूर्ण देव रुद्र को अनेक नामों तथा उपाधियों से संबोधित किया गया है। इन श्लोकों में रुद्र को श्रेष्ठतम क्षत्रिय कहा गया है। युद्ध के विभिन्न अस्त्र-शस्त्रों के अधिष्ठान-देव के रुप में रुद्र प्रतिष्ठित है। जैसे बारह आदित्योन्से प्रकाश का उगम होता है वैसे ग्यारह रुद्रों से ही शौर्य का उदय होता है। सैंतालीस मारुतों को भी उसी क्षात्र भाव और के साथ रुद्रों से संबद्ध किया गया है सेना तथा सैनिकों को अभिवादन करने के बाद[2] रुद्र क ऐसा वर्णन किया है “रुद्र रथ पर सवार करता है और रथ न हो ने पर वे हाथी या घोडे पर सवार हो जाते है, जो युद्ध प्रारम्भ कर एक साथ अनेक धनुषों पर शरसंधान करते है, जो शत्रुओं का तत्काल नाश कर देते है, जो तीर की गति से रथ दौडाते हैं, वे युद्ध कौशल की सभी विधाओं में निष्णात है, जो विश्व को अपने सैन्य बल का साहस दिखलाते है, जो शत्रुओं को देखते ही उनका नाश कर देते हैं और वे अपने दूरस्थ शत्रुओं का भी संहार कर देते है” इससे हमें ज्ञात होता है कि हमारे पूर्वज क्षात्र का कितना सम्मान करते थे।
अथर्व वेद में क्षात्र चेतना
अथर्ववेद की एक प्रार्थना में कहा गया है:-
“महान ऋषियों ने जिन्हे लोक और परलोक का परमार्थिक ज्ञान था, विश्व कल्याण के लिए दीक्षा प्राप्त की थी। तब ही राष्ट्र जागा और उसमें शौर्य और शक्त्ति का संचार हुआ। ऋषियों की दूर दृष्टि तथा तप के फलस्वरुप देवतागण हमारे राष्ट्र को शौर्य संपन्न करें !! और ऐसे राष्ट्र पर तपस्या तथा ब्रह्मचर्य मे निरत राजा का शासन हो[3] !!”
अथर्ववेद में राजनीति तथा यूद्ध नीति पर भी प्रार्थना है –
हे देव ! आश्वस्त करो कि हमारा कोई शत्रू न हो !
हमें क्षात्र क्षेष्ठता और समृद्धि हेतु प्रेरित करो[4] !!
इससे स्पष्ट है कि वैदिक काल में साहस की महिमा गाई और सिखाई गई है।
राजा का पट्टाभिषेक करते हुए अथर्ववेद में पुरोहित ये कहता है :-
“आपको सर्वोपरि देवाधिदेव इन्द्र का आशीर्वाद प्राप्त हो ! और
असुरों में श्रेष्ठतम वरुण का भी आशीर्वाद प्राप्त हो !
इनके आशीर्वाद के साथ मै राजाधिराज को सिंहासन तक ले जाता हूं[5] !”
वेदो के प्रारंभिक अंशों में असुर शब्द का अर्थ राक्षस या दुष्ट न होकर ‘जो हमे स्वास्थ्य और सुख प्रदान करता है’ उसे असुर[6] कहा गया था,और इस अर्थ में वे भी देवगण ही थे।
ऋगवेद में ऐतरेय ब्राह्मण में कहा गया है कि सिंहासनारुढ़ होने से पूर्व सभी समाज जनों के निवेदन पर कि ‘अब आपको हमारा शासक बनना है’, जन स्वीकृति प्रदान की जाती थी तथा सिंहासनारुढ़ होने के उपरांत राजपुरोहित द्वारा राजा के सिर पर तीन बार ब्रह्मदण्ड ठाकते हुए चेताया जाता था कि “अब आप धर्मदण्डय बन गये है”। सारांश रुप में राजा का शासन धर्माधारित हो ऐसी व्यवस्था प्रचलित थी।
अथर्ववेद में एक आशावादी प्रार्थना है :-
“हे अग्नि ! राष्ट कल्याण में सहायक हो ! राजा द्वारा उन सबका नाश हो जो प्रजा जनों को सताते है ! क्षत्रिय शिरोमणि और सोम प्रेमी इन्द्र उनको दण्ड़ दे जो प्रजा के लिए संकट है । और उन्हे सन्मार्ग पर लावें !! जन जन के श्रेष्ठ शासक तथा वृत्रा का वध करनेवाले हे इन्द्र ! शत्रुओं द्वारा वह (राजा) कभी बंदी न बने ! वह आगेवान होकर हमें भय मुक्त्त करे ! क्षात्र, शौर्य और तेजस्विता हमें हिंसा, लोभ, कपट, चिंता और निंदा से मुक्त्त करे ! जो हिंसक अपराधियों, चोरों, डकैतों, ठगों अपहरणकर्ताओं, भृष्टों तथा समाज के अन्य शत्रुओं द्वारा उत्पन्न की जा रही है[7] !! “
अथर्ववेद में (5.20, 5.21) दुंदुभि सुक्त्त नामक एक अलग से मंत्र पाठ का भाग है जिसमें रणभेरी की प्रशंसा के श्लोक है –
“हे युद्ध के नगाड़े ! तुम्हारे द्वारा किये जा रहे भीषण नाद की ध्वनि – शत्रुओं के धैर्य और साहस का हरण कर ले ! तेरी सिंह गर्जना राजा को युद्ध की प्रेरणा दे और उसके साहस को जागृत करे !”
इसके अतिरिक्त्त भी अथर्ववेद संहिता में ऐसे अनेक अध्याय है जिनमें केवल क्षात्र और राजनीति के बारे में कहा गया है। पृथ्वीसुक्त्त (12.1) में हमारे प्राचीन ऋषियों ने हमे शौर्य के महत्त्व को किस तरह पढ़ाया है, उन विधियों का वर्णन है। अपनी मातृभूमि के प्रति आदरभाव तथा क्षात्र के प्रति सत्यनिष्ठा – इन दोनो को हम सुक्त्त के बराबर सड़सठ मंत्रों में देखते हैं ।
इसके आगे अथर्ववेद में ब्राह्म निर्देशित क्षात्र का महिमा गान यह कह कर किया गया है – “राजा को अपने साम्राज्य की सुरक्षा तप और ब्रह्मचर्य के पालन द्वारा करना है[8]’।
अथर्व वेद में (7.12.1) हम प्रजा के कल्याण की सुरक्षा संबंधी सभा और समिति का संदर्भ भी पाते हैं। अथर्व वेद में ऐसे अनेक श्लोकसमूह हैं जिनमें राजा का यशोगान है और शत्रुओं के विनाश के साथ राज्य में समृद्धि और सुव्यवस्था की कामना की गई है[9]।
इस प्रकार हम वैदिक ग्रंथों में क्षात्र चेतना का व्यापक वर्णन पाते है।
धर्म शास्त्रों में क्षात्र चेतना
धर्मशास्त्रों के ग्रंथो में ऐसे अध्याय है जो पूर्णतः ‘राजधर्म’ के प्रति समर्पित है और इनमें इसकी विशिष्टताओं का विस्तार से निरुपण किया गया है। मनु, याज्ञवल्कय, नारद तथा अन्य की स्मृतियों में, साथ ही आपस्तंब, बोधायन, गौतम और अन्य के धर्मशास्त्रों में राजधर्म पर हजारों पृष्ठ लिखे गये है। इन सबमें यह दर्शाया गया है कि किस प्रकार सनातन धर्म के मूल सिद्धांतो पर आधारित एक पारदर्शी प्रशासन के प्रजा के हित संहक्षण में कार्य करना चाहिए। वैश्विक कल्याण एवं सुसंस्कृति की मान्यताए क्षात्र चेतना का प्राण तत्व रही है। यून्की प्रस्तुत पुस्तक केवल भारत की क्षात्र परम्परा के ऐतिहासिक विहंगावलोकन तक सीमित है अतः धर्मशास्त्रों के अन्य विस्तृत विवरण यॅहा नही दिये जा सकते हैं। इस संबंध में अधिक जानकारी प्राप्त करने के जिज्ञासु अध्येता गण, महा महोपाध्याय पी.वी. काणे के विस्तृत अध्ययन का लाभ उनके द्वारा लिखित बहुखण्डिय ग्रंथ ‘द हिस्ट्री ऑफ धर्मशास्त्र’ से प्राप्त कर सकते हैं।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1] बाहू मे बलं इन्द्रियं हस्तौ मे कर्मवीर्यम् | आत्मा क्षत्त्रं उरो मम (शुक्ल-यजुर्वेद 20.7)
[2] नमः सेनाभ्यः सेनानिभ्यश्च वो नमः (तैतिरिया संहिता 4.5.4)
[3] अथर्ववेद 19.41.1
[4] अथर्ववेद 1.21.1, 6.99.2
[5] अयं देवानां असुरो विराजति (अथर्ववेद 1.10.1)
[6] असून् रान्ति इत्यसुरः
[7] अथर्ववेद 10.5
[8] ब्रह्मचर्येण तपसा राजा राष्ट्रं विरक्षति (अथर्ववेद 10.3.5)
[9] विजय-सूक्त (1.2), शत्रु-नाशन-सूक्त (1.19, 3.6), राज्य-संवर्धन-सूक्त (1.30), विजय-प्राप्ति-सूक्त (2.27), पर-सेना-सम्मोहन-सूक्त (3.1), राज्य-पुनस्स्थापन-सूक्त (3.3), राजाह्वान-सूक्त (3.4), जयाभिलाष-सूक्त (11.9) शत्रु-क्षोभ-सूक्त (11.12), इत्यादि