जब कभी हम क्षात्र गुण की अनदेखी करते है तब कुछ ऐसे तथा कथित शांतिवादी लोग होते हैं जो इसे हिंसा से जोड़ कर इसे निर्दयी तथा अमानवीय समझते हैं। यह एक त्रुटियुक्त्त दृष्टिकोण है। बिना सुरक्षा ‘मात्स्यन्याय’ (अर्थात् बडी मछली छोटी मछली को खा जाती है) प्रचलन में आ जाता है। इस संबंध में महाभारत के शांतिपर्व में ‘राजधर्मप्रकरण’ पर विस्तृत विवेचना की गई है। हमें समझना होगा कि यदि व्यवस्था चाहिए तो दण्ड़ का प्रावधान आवश्यक है, दण्ड के प्रावधान से ही व्यवस्था की स्थापना होती है। कामंदकीय नीतिसार ग्रंथ[1] (1.1) का प्रारम्भ ही राजा के प्रशस्तिगान से होता है जो धर्म के प्रतीक राजदंड को धारण कर अपने दण्ड़ाधिकार का न्यायोचित उपयोग करते हुए व्यवस्था को बनाये रखता है। इससे संक्षेप में स्पष्टतः क्षत्रिय शब्द का महत्त्व व्यक्त हो जाता है।
वेदो में क्षात्र चेतना
मानव सभ्यता के प्रारम्भिक काल से ही विश्व में शक्ति और साहस की भावना का अस्तित्व रहा है। वेदो के प्रमुख अंग उपनिषदों में धर्म के साथ ब्राह्म, क्षात्र, वैश्य और शूद्र की उत्पत्ति से संबंधित एक प्रसिद्ध कथा कही गई है. सभी वर्णों की उत्पत्ति प्रजापति (ब्रह्मा) से हुई है[2]।
इन्द्र क्षात्र के तथा अग्नि ब्राह्म के प्रतीक हैं। ऋगवेद के प्रमुख देव इन्द्र की स्तुति में ऋगवेद संहिता में अनेक श्लोक लिखे गये है। साहस के भावसूत्र – वे चाहे विष्णु के हो या शिव के, अंततः इन्द्र में समाहित हो जाते हैं। यंहा तक कि स्कंद जिसका विवाह इन्द्र की पुत्री देवसेना से हुआ था, वह भी इसी धारा मे बसे हुये है। वेदों के प्रमुख देवताओं में इन्द्र, विष्णु और रुद्र विशेषरुप से क्षात्र का प्रतिनिधित्व करते हैं, वरुण क्षात्र के साथ ऋत अर्थात् वैश्विक व्यवस्था भी सम्हालते हैं। पुराणों में देवताओं और ऋषियों की लंबी वंश परम्पराओं का विवरण दिया गया है। ब्रह्म से नौ ब्रह्माओं (प्रजापतियों) की उत्पत्ति हुई, इन्ही में से एक भृगु ऋषी से क्षात्र तथा साहस का प्रतिनिधित्व करने वाले भार्गव हुए। क्षात्र का सारतत्व वहन करने वालों में ब्रह्मस्वरुप अंगीरस भी है। सिंधुद्वीप, विश्वामित्र, देवापी जैसे क्षत्रिय भी महान ऋषी बन गये । इस प्रकार हम ऋषियों में भी क्षात्र भाव देखते है। आधुनिक मानवविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में हम पाते हैं कि जैसे ही मानवसमाज में अव्यवस्था होती है, क्षात्र तत्व का उदय हो जाता है। जिस क्षण हमें व्यवस्था चाहिए उसी समय क्षात्र आवश्यक हो जाता है। मानव समाज रुपी भाषा की व्याकरण तो क्षात्र है। व्याकरण हेतु एक दूरदर्शी दृष्टिकोण और दर्शन आवश्यक है – जो ब्रह्म है। जिस प्रकार एक मानवीय भाषा को व्याकरण चाहिए उसी प्रकार समाज को क्षात्र की आवश्यकता है।
व्याकरण की नियमावली में कुछ आधारभूत मान्यताओं पर प्रश्न उठाना व्यर्थ है। उदाहरणार्थ ‘मै पानी खाता हूं’ के स्थान पर ‘मै पानी पीता हूं’ कहना सही है। इस पर प्रश्न उठाना निरर्थक ही नही अपितु हास्यास्पद भी है। ऐसे प्रकरणों में प्रथम दृष्ट्या मान्य नियमों पर चलना अधिक सुगम होता है। इसी प्रकार क्रियापद में पुरुष हेतु ‘आता हूं’ तथा महिला हेतु ‘आती हूं’ जैसे शब्दों का प्रयोग किया जाता है, इसके विपरीत नही[3]। यध्यपि गलत व्याकरण युक्त भाषा व्यवहार से यथार्थ बदलता नहीं है तथापि हमारी संप्रेषण प्रक्रिया पर इसका बहुत बुरा प्रभाव पड़ता है और अन्ततः वास्तविक स्थिति भी प्रभावित होती है। इससे स्पष्ट है कि हमें कुछ मूलभूत सिद्धांतो को स्वीकार करना होगा। इतिहास में भाषा अपने समय की अनुगामी रही है। देश काल आधारित सत्य के उद्भव के साथ ही व्यवस्था का उदय होता है।
इसी प्रकार हमें यह स्वीकारना होगा कि क्षात्र भी प्रकृति का एक अभिन्न अंग है। यह हर समय अभिव्यक्त होता है। मानव विज्ञानी बतलाते हैं कि आदिम काल में मनुष्य के लिए मांसाहारी हिंसक पशुओं से उत्पन्न संकट से सुरक्षा हेतु उनसे लडने वाले नेतृत्व की आवश्यकता हुई। इससे उत्पन्न प्रतिक्रिया तथा अस्तित्व बोध के कारण क्षात्र का उदय हुआ। वस्तुतः इस प्रक्रिया को हम स्वयं में हर दिन देखते हैं। यदि हम में क्षात्र भाव न हो तो हम किस तरह अपनी काम कर सकते हैं? हम में प्राकृतिक रुप से पाई जाने वाली सुरक्षा की सहजवृत्ति क्षात्र का ही प्राकट्य है। अंतःस्त्राव ग्रंथियों द्वारा निसृत हारमोंस हमारे शरीर में प्रवाहित हो कर हममें चेतना, उत्साह तथा सतर्कता का बोध पैदा करते हैं। चिकित्सकों का कहना है कि इन हारमोंस की अधिकता से हम में कई विक्षोभ पैदा हो जाते है। अतः संतुलन आवश्यक है। यह सर्वविदित है कि हमारे रक्त की श्वेतकोशिकाए हमें बीमारियों से बचाती है, वे वायरस तथा जीवाणुओं से लडकर, स्वयं नष्ट होकर भी हमारे शरीर की सुरक्षा करती है। क्या यह क्षात्र धर्म का ही एक प्रकार नही है? प्रकृति में क्षात्र की उपस्थिति अवश्यंभावी है। इस सत्य को नकारा नही जा सकता है। संस्कृति भि प्रकृति के अनुरुप विकास करती है अन्यथा उसका विनाश सुनिश्चित है।
इसे सोदाहरण समझने के लिए हम वर्तमान भारत की घटनाओं का परीक्षण करें। जवाहरलाल नेहरु का यह कहना कि भारत को सैन्य बल की आवश्यकता नहीं है, अत्यंत नासमझी पूर्ण सोच थी। गांधी ने भी कुछ इसी तरह कहा था। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हम सेना रखने या ना रखने का निर्णय करने में दुविधाग्रस्त हो गये थे[4]। वहीं दूसरी ओर पी. एस. शिवस्वामी अय्यर जैसे प्रतिभावान व्यक्ति जो उस समय मद्रास प्रेसिडेंसी के गवर्नर थे, वे अपने गहन अध्ययन और वक्तव्य द्वारा समझाया कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत को किस प्रकार अपनी सेना का गठन तथा निर्माण करना चाहिए। इसका विस्तृत विवरण हम अनेक विषयों के ज्ञाता सुप्रसिद्ध विद्वान डी.वी.गुंडप्पा के लेखन में पाते है।
यदि किसी देश को स्थापित होना है तो उसे ब्राह्म पोषित क्षात्र के आधार की आवश्यकता है। यदि हमने ब्रिटिश लोगों से लड़ कर स्वतंत्रता पाई होती तो शायद हम इतने लापरवाह नही होते!! हमने अपनी स्वतंत्रता को जीता नही है, वह हमें सहज ही मिल गई है। उसे कहीं छोड़ दिया गया जिसे हमने अचानक ही पा लिया। यही कारण है कि आज भी हम इसके वास्तविक महत्व को समझ पाने में असफल हो रहे हैं। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमें युद्ध के लिए तैयार रहना था। 1948 में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर किये गये आक्रमण में मारे गये लोगों तथा भूभाग गंवाने के अतिरिक्त भी भारत का एक बडा भूभाग जिसका विस्तार लगभग 1200 मील लम्बा तथा 80000 वर्ग मील क्षेत्रफल का है, सीमावर्ती चीन के साथ विवादास्पद स्थिति में है। चीन और पाकिस्तान जैसे दो बडे देशों के साथ हमारी सीमाए आज भी स्पष्ट नहीं है और हम ही नही जानते कि हमारी सीमा रेखा कहा खींची जाना चाहिए !! इतना ही नही कितने अन्य भूभाग गंवा चुके है इस बारे में हम भोले लोगों को कुछ पता नहीं है। इन सबका कारण क्षात्र का अभाव है और कुछ नही[5] !! हमें समझना होगा कि –
इस परिप्रेक्ष्य में जब हम नेहरु के कथन का परीक्षण करते है कि हमे सेना की आवश्यकता नहीं है तो हम अनुभव करते है कि यह कितना हास्यास्पद कथन था। प्राकृतिक नियमों की अवहेलना से उत्पन्न संकट या तो भ्रामक आदर्शवाद अथवा आलोचनात्मक विनाशकारी मनोवृत्ति का परिणाम होते हैं। गीता में कृष्ण अर्जन से कहते है – “जो तू अंहकार का आश्रय लेकर यह मान रहा है कि ‘मै युद्ध नहीं करुंगा’ तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है क्योंकि तेरा स्वभाव तुझे बलपुर्वक युद्ध में लगा देगा”[6]
इस प्रकार हम देखते हैं कि क्षात्र की संबद्धता प्रकृति तथा संस्कृति दोनो से है। स्वयं की सुरक्षावृत्ति सभी प्राणियों में जन्मजात होती है भले ही वह इस बारे में सचेत हो या न हो। हमारे प्राचीन शास्त्रकारो ने लिखा है कि प्रत्येक प्राणी की मोलिक वृति भोजन, निद्रा, भय और संभोग है। क्षत्रिय का यह मूल लक्षण है कि वह भय से मुक्त कर सुरक्षा सुनिश्चित करता है[7]। अतः विश्व की सुव्यवस्था के निर्माण में हमे क्षात्र के अस्तित्व को आधारभूत इकाई के रुप में स्वीकारना होगा।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]यस्य प्रभावद् भुवनं शाश्वते पथि तिष्ठति | देवः स जयति श्रीमान् दण्डधारो महीपतिः || (कामन्दकीय नीतिसार 1.1 )
[2]बृहदारण्यकोपनिषत् 1.4
[3]अब से पान्च साल पेहले भी यह टिप्पणी का आवश्यकता नहि थी | परन्तु अब तो ‘वोकिस्म्’ का युग चल रहा है जहा ‘प्रेफ़ेर्रेड् प्रोनोउन्’ का उन्माद है | लोगोन् को मूर्ख बना दिया जा रहा है की अपने सर्वनाम बदलने से वास्तविकता मे भी बदलाव हो जाता है | जो भी अल्प संख्या मे लोग स्वयं को सत्यता मे अलग समझ्ते है उन लोगोन् का अपमान है तथा अन्ततः ये हमे ब्राह्म और क्षात्त्र के पथ से विचलित करते है – अनुवादक के टिप्पणी
[4]यह स्थिति उस समय का नेतृत्व का दिवालियापन दर्शाता है – अनुवादक की टिप्पणी
[5]‘जो प्रकृति में अंतर्निहित है उसका त्याग असंभव है अतः जो आचरण धर्माधारित हो उसे ग्रहण करना चाहिए’ (मनुस्मृति 4.176)
[6]यदहङ्कारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यते | मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति (भगवद्गीता 18.59)
[7]भयाद्रक्षणम्