भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 7

This article is part 7 of 59 in the series Kshatra Parampare in Hindi

इन्द्र : क्षात्र का प्रमुख प्रतीक

वेदो में इन्द्र को पुरन्दर कहा गया हा अर्थात् शत्रुओं के पुरों का जिसने नाश किया है। यंहा ‘पुर’ शब्द, शत्रुओं के नगरों और किलों के संदर्भ में पुयुक्त है तथापि यह उनके शरीरों के संदर्भ में भी प्रयुक्त हो सकता है। तब पुरन्दर शब्द का उपयोग ‘वह जो तीनों प्रकार के शरीरों (स्थूल, सूक्ष्म तथा कारण) का नाश करनें में सक्षम हो’ के रुप में होगा। शिव को त्रिपुरारी इसी आशय से कहा जाता है। अतः पुरन्दर शब्द का अर्थ आध्यात्मिक स्तर से भौतिक स्तर तक विस्तृत रुप में शत्रुओं के नाशक के रुप में होता है। इन्द्र ने वृत्रासुर का संहार किया क्योंकि उसने  विश्व के सारे जल पर अधिकार कर लिया था। इन्द्र ने उन सबका विनाश किया जो समृद्धि तथा विकास में बाधक थे। उसने उन सब दुष्टों को भी मिटा दिया जो विश्व के सामान्य लोगों के लिए संकट पैदा करते थे। बल, पाक, पणी, जंभ, अही, नमुची और शम्बर इत्यादि दैत्यों का नाश किया। इन्द्र को कुछ विशेषाधिकार भी प्राप्त है। सोमयाग में इन्द्र को सबसे बडा भाग प्रदान किया जाता है जिसे मिमांसा में ‘प्रयाज’ कहा गया है।

युद्धकाल में सैनिकों को सुरापान की विशेष छूट दी जाती है। हमारी परम्परा में इसे ‘वीरपान’ (साहस का पेय) कहा गया है। वाल्मीकि तथा व्यास ने भी अपने महाकाव्यों में इसका उल्लेख किया है। आज भी सैनिकों की बेरकों तथा केम्पों में उन्हे सस्ते दामों पर शराब दी जाती है। यह उनका विशेषाधिकार है। यंहा यह ध्यान देने योग्य है कि पुरातन समय में भी शराब जैसी वस्तु के महत्व को भी वेदो ने पहचान लिया था। युद्ध काल में शारीरिक पीड़ा और मानसिक तनाव को कुछ सीमा तक कम करने में शराब एक उपयोगी साधन है।

हमारी परम्परा में प्रकृति में इन्द्र का अभिव्यक्ति वर्षो, बिजली और गर्जन के साथ जोड़ा गया है। इसका क्या अर्थ है? सभी प्राणियों का जीवन पृथ्वी पर टिका हुआ है। धरती के बाद जल आवश्यक है। यद्यपि धरती सब जगह है तथापि जल सब स्थानों पर उपलब्ध नही होता है। बिना जल, जीवन असंभव है। वस्तुतः ‘जीवन’ शब्द का अर्थ जल और जीवित रहना, दोनो ही है। भारत प्रमुख रुप से ‘मानसून’ आधारित देश है। वर्षा के लिये हि एक अलग ऋतु है[1] | मानसून के पश्चात अच्छा जल-संग्रह हो जाता है, अतः हम अच्छी वर्षा के लिए इन्द्र से प्रार्थना करते हैं। इन्द्र के प्रति आभार व्यक्त करने हेतु हमारी परम्परा में ‘इन्द्र – ध्वजोत्सव’ का समारोह  संपन्न किया जाता है। वेदो में इन्द्र को वर्षा और मौसम का प्रतीक माना है।

इन्द्र के प्रतिरुप में अग्नि है जो आग के देवता है और ब्राह्म के सारतत्व के प्रतीक हैं। आग के बिना कोई काम नही होता। अग्नि शब्द की व्याख्या – ‘जो निर्जीव को सजीव करदे’ तथा ‘जो स्थिर को गति देकर मंद का भी नेतृत्व करता है’ के रुप में की गई है[2]। अग्नि के साथ हवा के देवता वायु है जो क्षात्र के प्रतीक है। यह इन्द्र के समान क्षत्रिय देव है। इस प्रकार ब्रह्म-क्षात्र की जोड़ी एक साथ चलती है।

वेदो में भिन्न भिन्न देवताओं को भिन्न भिन्न वर्ण प्रदान किये गये हैं[3]। अपने वर्ण के अतिरिक्त प्रत्येक देवता में क्षात्र अंश समाहित है। उदाहरण स्वरुप अश्विनी कुमार जो जुडवॉ भाई है और वैश्व वर्ण के देवता है किंतु शांतिकाल में क्षात्र की भूमिका का निर्वाह करते है। वे सदैव निर्धनों, अभावग्रस्तों, असहायों और निर्बलों के सहायक है। उनमें हम शांति और अस्तित्त्व बनाये रखने वाली शक्ति के रुप में क्षात्र को देखते हैं। वे व्यवस्था निमार्ण के भी प्रतिनिधि हैं।

इस प्रकार इन्द्र वेदो में प्रमुख देवता है जो प्रत्येक का नेतृत्व करते हुए स्थिति की सुरक्षा करते हैं। इन्द्र अदिति के सबसे बडे पुत्र हैं। अदिति सबको जोडकर रखनेवाली संगठन शक्ति है। वह अद्धैत की प्रतीक चिन्ह है। यह स्वाभाविक है कि देवतागण शांति और सह अस्तित्त्व के पोषक है। इसके विपरीत दैत्य गण जो दिति के पुत्र है-विभाजन एवं जीवोच्छेदन करते हैं। अतः स्वभाविक है कि दैत्यों को अशांति तथा विषमता पूर्ण कृत्यों में आनंद आता है।

यजुर्वेद में क्षात्र चेतना

यजुर्वेद में क्षात्र के सारतत्त्व को जो श्रेष्ठता प्रदान की गई है, वह सुस्पष्ट है। क्षात्र के निष्कर्ष का एक महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्त्व ‘अश्वमेध’ है। यजुर्वेद को क्षत्रियों का स्त्रोत बिंदु माना गया है[4] | ऋगवेद को ब्राह्मणों, यजुर्वेद को क्षत्रियों और सामवेद को वैश्यों के साथ संबंद्ध माना गया है[5]। यजुर्वेद कर्मप्रधान और मुख्यतः कर्मकाण्ड़ युक्त वेद है। ऋगवेद मुख्यतः प्रार्थना प्रधान है, सामवेद में पूजा की प्रमुखता है और अथर्ववेद भौतिकता और आध्यात्मिकता के मध्य एक सेतु है।

क्षात्र के प्रतीक स्वरुप दुष्ट शत्रुओं का नाश तथा सज्जनों की सुरक्षा यजुर्वेद में परिलक्षित है। यजुर्वेद का उपवेद अर्थवेद अथवा धनुर्वेद है। मंत्र की व्याख्या करते हुए महीदास कहते हैं – ‘धनुर्वेद युद्ध का विज्ञान है’[6]। धनुर्वेद में पुरी युद्ध व्यवस्था का वर्णन है। राजसूय, सौत्रामणि, वाजपेय और अश्वमेध जैसे यज्ञो का क्षात्र-यज्ञो के रुप में यजुर्वेद में वर्णन है। अपने खोये हुए भूभाग को पाने के लिए विभिन्न सैन्य इकाइयों को संगठित करने के प्रयोजन सो वाजपेय यज्ञ किया जाता है। सौत्रामणि यज्ञ द्वारा अपने सभी संधि-मित्रों को संगठित किया जाता है। राजसूय यज्ञ किसी सम्राट के जन्म पर अथवा बनने पर किया जाता है[7]। साम्राज्य के विस्तार और किसी बड़े भूभाग पर अपनी संप्रभुता की घोषणा अश्वमेध यज्ञ द्वारा की जाती है। स्पष्टतः इन यज्ञों से निरन्कुश क्षात्र का ही प्रदर्शन होता है।

हमारी पारम्परिक पूजा पद्धतियों में आराधना के साथ क्षात्र तत्त्व भी समाहित है। दुर्भाग्य से वर्तमान सैन्य विज्ञान में कायरता का पूजन सम्मिलित हो गया है। हमने अपनी सेना में संकृचित कर्मकाण्ड़ की मानसिकता द्वारा उसकी ऊर्जा तथा वीरभाव को घटाया है। जबकि हमारे वैदिक ऋषियों ने कर्मकाण्ड़ तथा पूजा में भी क्षात्रभाव को स्थान दिया है। यजुर्वेद की एक शाखा शुक्ल यजुर्वेद में याज्ञवल्क्य ऋषि कहते है – ‘देवतागण तब ही पुण्य फल प्रदान करते हैं जब क्षात्र और ब्रह्म साथ हो, इसे प्रज्ञेश कहते है ऐसा मेरा मत है’[8]

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Footnotes

[1]पश्चिमी देशोन्से विपरीत हमारे देश मे छह ऋतुएं है – वसन्त, ग्रीष्म, वर्ष, शरद्, हेमन्त, और शिशिर

[2]अगं नयति, अग्रे नयति इत्यग्निः |

[3]अग्नि बृहस्पति तथा प्रजापति ब्राह्मण है क्योन्की वे निर्मलता, ज्ञान एवं काम के नियन्त्रण के प्रतीक है | इन्द्र, वरुण, सोम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु, तथा ईशान क्षत्त्रिय देवता है क्योन्की वे धैर्य, साहस, व्यवस्था, सुरक्षा तथा प्रबन्ध के प्रतीक है | वसुओं, रुद्रों, आदित्यों, विश्वेदेवताओं तथा मरुतों को वैश्य देवता केहलाय है क्योन्की दैनन्दिन कार्यों मे उनका आवश्यकता है | वो असंख्य है, सभी जगह है और लोगोन्का भिन्न भिन्न आवश्यकता का पूर्ण करते है | पूषा जो पोषण करनेवाला सौर देवता है वो शूद्र है क्योन्की उसका मूलभूत सेवा पोषण है | पूषा को बलहीन तथा अशक्त लोगोन्का संरक्षक के रूप मे अभिहित किया जाता है | बृहदारण्यकोपनिषद 1.4, 10-13

[4]यजुर्वेदं क्षत्त्रियस्याहुर्योनिम् (तैतिरिया संहिता 3.12.1-2)

[5] इस के बारे मे विभिन्न दृष्टिकोन है तैतरिया ब्राह्मण (3.12.9.2) के अनुसार ब्रह्म ने सामवेद से ब्राह्मण, यजुर्वेद से क्षत्रिय तथा ऋगवेद से वैश्य की रचना की है।

[6]धनुर्वेदो युद्धशास्त्रम्

[7]राजसूय का अर्थ है ‘उच्च स्तर तक उठाना’, यह राज्यभिषेक की प्रक्रिया से भिन्न है

[8]यत्र ब्रह्म च क्षत्त्रं च संयञ्चौ चरतः सह | तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेशं यत्र देवाः सहाग्निना (शुक्ल यजुर्वेद 20.25)

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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