भारतीय क्षात्त्र परम्परा - Part 56

This article is part 56 of 92 in the series Kshatra Parampare in Hindi

अन्य राजपूत राजवंश

गुर्जर चौलुक या चालुक्य वंश को सामान्य रुप से सोलंकी वंश के नाम स जाना जाता है। भीमदेव प्रथम (सन् 1022-64) अत्यधिक प्रसिद्ध था किंतु जब महमूद गजनी ने सोमनाथ पर आक्रमण किया तो वह एक डरपोक व्यक्ति की भांति अपनी जान बचाने के लिए कच्छ के सुरक्षित क्षेत्र में भाग गया। इस प्रकार उसने क्षात्र चेतना पर एक अमिट कलंक लगा दिया। इतना ही नही मूर्खता वश यह सदैव परमार भोज और कलचुरी कर्ण का भी विरोध करता रहा जो सनातन धर्म के प्रमुख संरक्षक थे।

सौभाग्य से राजा जयसिंह (सन् 1094-1144) ने न केवल क्षात्र भाव के वैभव को पुनः जागृत किया अपितु सिंध  से अरबों को भी समाप्त किया। सनातन धर्म की दृढ़ता को रक्षा करते हुए उसने अपने राज्य में कुएं, तालाब, बावडियॉ तथा मंदिरों का निर्माण करवाया। उसने ब्राह्म-क्षात्र समागम के आदर्श की प्रतिष्ठा को सदैव बनाये रखा। किंतु उसका उत्तराधिकारी कुमारपाल जो उसका निकट वर्ती रिश्तेदार था, वे हेमचन्द्र सूरी के प्रभाव में आकर जैन धर्म स्वीकार कर लिया। दुर्भाग्यवश उसके निवृत्ति धर्म स्वीकार करने के कारण क्षात्र भाव पर घोर कुठाराघात हो गया और इसके परिणाम स्वरूप कुमार पाल की मृत्यु के उपरांत सोलंकी साम्राज्य समाप्त हो गया।

कान्यकुब्ज तथा वाराणसी को केंद्र बनाकर गढ़वाल राजवंश के शासन काल में गोविन्दचन्द्र बहुत योग्य शासक हुआ था। उसने न केवल अनेक युद्ध जीते अपितु वह एक कला प्रेमी भी था। ‘कृत्यकल्पतरु’ नामक धर्मशास्त्र विषयक विश्वकोश का लेखक लक्ष्मीधर उसका मंत्री था। उसके ज्येष्ठ पुत्र विद्याचन्द्र ने खुसरोखान नामक मुस्लिम आक्रांता को युद्ध में परास्त किया था। कुख्यात जयचन्द्र (जयचंद) इसी का पुत्र था।

हाल के शोध कार्य से ज्ञात होता है कि जयचंद ने पृथ्वीराज चौहान के साथ धोखा नहीं किया था बल्कि इसके विपरीत वह मोहम्मद गोरी से युद्ध करते हुए मारा गया था। उसने श्रीहर्ष जैसे महान विद्वान और कवि को अपना संरक्षण प्रदान किया था। इस राजवंश द्वारा निर्मित अनेक शिव-केशव देवालयों को धर्मान्ध कट्टरपंथी मुसलमानों द्वारा पूर्ण रूप से मिटा दिया गया।

मालवा के परमार भी राजपूत है। इनमें मूंज, उसका अनुज सिंधुला तथा सिंधुला का पुत्र भोज प्रमुख नाम है। वे सभी विद्वानों तथा कवियों के बडे संरक्षक थे। भोज सनातन धर्म का परम अनुयायी था। उसने जिस मात्रा में साहित्य सृजन किया उसी अनुपात में उसने अनेक मंदिरों का निर्माण भी किया। वह ब्राह्म-क्षात्र के रथ का चक्र था जिसकी गति से इन दोनों का समन्वय हो रहा था।

गुहिलोत (आज के गेहलोत) जिन्होंने राजस्थान, पंजाब और काठियावाड़ क्षेत्र में शासन किया, वे मूलतः मेवाड़ के थे। उन्हे विभिन्न नामों से बुलाया जाता है जैसे – गुहिल पुत्र, गोभिल पुत्र, गुहगोत्र आदि। वे मूलतः ब्राह्मण वंश के थे किंतु अपने शौर्य के कारण अन्ततः उन्हें राजपूतों के छत्तीस प्रमुख राजवंशों में सम्मानजनक स्थिति प्राप्त हुई।

इस वैभवशाली राजवंश में क्षत्रिय शिखरपुरुष बप्पा रावल, रतन सिंह, राणा कुम्भा, राणा संग्राम सिंह और महाराणा प्रताप सिंह ने जन्म लिया था। राणा कुंभा जितने बड़े योद्धा थे उतने ही बड़े वे धर्मशास्त्र मर्मज्ञ भी थे। इस वंश का प्रत्येक शासक सनातन धर्म के लिए लड़ता रहा और इस्लाम के अपमानजनक प्रभाव को समाप्त करने के लिए सदैव प्रतिज्ञाबद्ध रहा। संत भक्त शिरोमणि मीरा बाई इसी गुहिल राजवंश में जन्मी थी। इस राजवंश की वैभवशाली परंपरा और उपलब्धियां हृदय को आदर से भर देती है।

तोमर वंश राजपूतों की एक और शाखा है जो दिल्ली के निकटवर्त्ती क्षेत्र से पनपी है। तोमर राजवंश के अनंगपाल द्वितीय के अथक प्रयासों के कारण ही नई दिल्ली का लाल किला मूलरूप में बन पाया था। वह इस्लामिक आक्रमणों के साथ विविध रूप से लड़ता रहा। उसने मिहिरावलि (महरौली) क्षेत्र के आसपास अनेक वैदिक शिक्षा केन्द्र तथा मंदिर श्रृंखलाओं का निर्माण करवाया था। यह वही अनंगपाल है जिसने चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य के लौह स्तंभ को जो किसी उजाड़ स्थान में पड़ा था, ढूंढ कर उसे मिहिरावलि में पुनर्स्थापित किया था।

तोमरों को चौहाणो ने परास्त किया था। तथापि फिरोजशाह तुगलक से इन लोगों ने गोपागिरी (ग्वालियर) को मुक्त करवा कर लगभग एक सौ पचास वर्षों तक शासन करते हुए उस क्षेत्र में सनातन धर्म की रक्षा की थी। अपनी समस्त वीरता साहस और प्रतिभा के बाद भी सतत मुस्लिम आक्रमणों को झेलते हुए अंततः वे निर्दयी इब्राहिम लोदी के सैन्य दबाव के कारण परास्त हो गये।

सारांश में प्रतिहारों के उपरांत अनेक राजपूत वंश परम्पराऍ जो स्वयं को सूर्यवंशी, चंद्रवंशी अथवा अग्निवंशी दर्शाती रही है, ने सक्रिय रूप से उत्तरी तथा मध्य भारत के क्षेत्र में क्षात्र चेतना को जीवंत रखने में बड़ा योगदान दिया। यह सभी राजपूत समाज हमारे प्राचीन भारतीय गणतांत्रिक समुदाय – मद्र, मालवा, यौधेय, तथा अन्य का प्रतिनिधित्व करते है। यह सब उत्तर काल में ब्राह्मणों, शूद्रों, साबर, किरात, पुलिंद आदि समुदायों के पारस्परिक उत्परिवर्तन को भी दर्शाते है जिन्होने क्षत्रिय धर्म का अपने जीवन यापन का साधन बनाया। ऐसा भी कहा जाता है कि कुछ प्रकरणों में यवन, शक और हूण तथा कुषाण लोगो ने भी सनातन धर्म स्वीकार कर स्वयं को भारतीय बना लिया। किंतु कुछ विद्वान इसे मात्र एक अनुमान मानते हैं।

कुछ भी हो ! अपनी समस्त कमजोरियों और गलतियों के साथ, सतत अंतःकलह करते हुए भी तथा स्वाभिमान के झूठे अहंकार को पालकर मरते हुए भी, पूरा राजपूत समाज क्षात्र चेतना का एक प्रखर ज्वलंत उदाहरण है जो असाधारण योद्धा रहे तथा सदैव सनातन धर्म के प्रति समर्पित रहे। यदि यह राजपूत योद्धा इस्लाम के आक्रांताओं से न लड़ता तो भारत वर्ष वर्षों पहले एक इस्लामिक देश बन जाता। हम इस सत्य को जितनी गहराई से अनुभव करते है उतना ही हमारे हृदय में इस राजपूत समुदाय के प्रति सम्मान भाव जागृत होता जाता है।

To be continued...

The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.

Author(s)

About:

Dr. Ganesh is a 'shatavadhani' and one of India’s foremost Sanskrit poets and scholars. He writes and lectures extensively on various subjects pertaining to India and Indian cultural heritage. He is a master of the ancient art of avadhana and is credited with reviving the art in Kannada. He is a recipient of the Badarayana-Vyasa Puraskar from the President of India for his contribution to the Sanskrit language.

Translator(s)

About:

Prof. Dharmaraj Singh Vaghela served as the Head of the Department of Physics at the Government Arts and Science College, Ratlam of the MP Govt. Higher Education Department, until his retirement in 2004. He has published a number of papers in Plasma Physics in international journals. His papers have also appeared in the research journal of the Hindi Science Academy. Among other books, he has translated Fritjof Capra's best-selling work "The Tao of Physics" into Hindi. He has written a monograph in Hindi which explains the philosophical aspects of modern physics.

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