समुद्री घाट क्षेत्र के अनेक शत्रुओं को पुलकेशी ने हराया। उसने अनेक राष्ट्रकूटों पर भी विजय प्राप्त की, उसने सातवाहनों को समाप्त किया, उसने पल्लव वंशी महेन्द्रवर्मा तक को निष्प्रभावी कर दिया। उसने न केवल कांची तक धावा बोला अपितु कन्याकुमारी तक अपनी संप्रभुता को स्थापित किया। समस्त दक्षिण भारत पर अपना नियंत्रण स्थापित करने के उपरांत पुलकेशी ने नर्मदा तट पर हर्षवर्धन को आसानी से हरा दिया। हर्षवर्धन जो ‘उत्तरापथ परमेश्वर’ था पूरे देश का सम्राट बनने की इच्छा से नर्मदा तट तक आगया और वहां उसे ‘दक्षिणापथ परमेश्वर’ पुलकेशी द्वितीय का सामना करना पड़ा था। चूंकि दोनों ही सम्राट सुसंस्कृत तथा समझदार थे अतः उन्होने अपने अपने क्षेत्र तक सीमित रहने का मैत्री भाव दिखाया।
इस मैत्र-संधि का सांस्कृतिक प्रभाव व प्रसारण बहुत उल्लेखनीय रहा। हर्षवर्धन के दरबार के गद्य चक्रवर्ती महाकवि बाणभट्ट द्वारा रचित ‘हर्षचरित’ में दिया गया ‘मंगल श्लोक[1]’ बाद में अनेक चालुक्य अभिलेखों का मंगलश्लोक बन गया। वस्तुतः कर्नाटक के अन्य राजवंशियों के अभिलेखों में भी यह आशीर्वाद प्रदायक मंगलश्लोक प्रयुक्त होता रहा है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि यद्यपि राजनैतिक स्तर पर हर्षवर्धन हार गया था फिर भी सांस्कृतिक स्तर पर वह विजयी रहा[2]।
यद्यपि चालुक्य लोगों ने हर्षवर्धन के वर्चस्व को अस्वीकार करने की दृष्टि से उसके विरुद्ध युद्ध कर उसे हराया फिर भी उन्होंने हर्षवर्धन की प्रशंसा में आशीर्वचन के रूप में लिखी कविता के श्लोक को सहर्ष स्वीकार कर लिया !! इसका कारण मात्र इतना ही नही था कि वह बाणभट्ट की एक उत्तम रचना है किंतु इससे पुलकेशी के साहित्य, संगीत आदि के प्रति उसकी परिष्कृत सुरुचि भी परिलक्षित होती हे।
यद्यपि रोमन सेना ने ग्रीस को हरा दिया था किंतु फिर भी रोमन सभ्यता और परम्पराओं के प्रत्येक पक्ष पर ग्रीक संस्कृति ने अपनी अमिट छाप छोडी है। रोमन साम्राज्य का शिखर काल अगस्टस सीजर के समय में था। उसके दरबारी कवि वर्जिल ने दो ग्रीक महाकाव्यों – इलियद और ओडिसी को मिलाकर ‘ईनियाड’ की रचना की थी। वह अपनी कृति में इन दोनो काव्यों की कहानियों को दर्शाना चाहता था। ईनियाड का प्रथम अर्धभाग ओडिसी तथा दूसरा भाग अर्थात उत्तरार्ध इलियद से जुड़ा है। एनियास इस काव्य का नायक है जो ट्रॉय का रहने वाला है और ग्रीक लोगों का दुश्मन है। वर्जिल के अनुसार एनियास इटली में आता है तथा अपनी सन्तानों के माध्यम से रोमन सभ्यता का संस्थापक बन जाता है। इसमें दो संस्कृतियों को बहुत ही श्रेष्ठ तरीके से जोडा गया है। इससे रक्तपात से बचाव हो जाता है तथा दोनों के मध्यके पारस्परिक संबंध सुधर जाते है।
पुलकेशी द्वितीय की उदारता भी इसी प्रकार से उल्लेखनीय है। हर्षवर्धन द्वारा अपनी हार की स्वीकारोक्ति भी प्रशंसनीय है। इस प्रकार के घटनाक्रम को घटित होने के लिए दोनों पक्षों का सांस्कृतिक रूप से परिष्कृत होना तथा उनमें चारित्रिक गुणवत्ता का होना आवश्यक है। जब हम हर्षवर्धन का बाद के काल में पतन देखते है तो प्रतीत होता है कि यह उसका सौभाग्य ही था कि उसको शत्रु रूप में पुलकेशी का सामना करना पड़ा था।
इस्लाम तथा क्रिश्चियन आक्रांताओं के हिंसक एवं पाशविक सैन्य बलों से ऐसे हृदयस्पर्शी संधियों की कल्पना तक नही हो सकती है।
पुलकेशी द्वितीय का अन्तसमय
पुलकेशी द्वितीय जैसे अति शक्ति संपन्न सम्राट को भी अपने अंतिम समय में अनेक कठिनाइयों तथा समस्याओं से जूझना पड़ा। बारम्बार उसका भाई कुब्ज विष्णुवर्धन विद्रोह करता रहा किंतु पुलकेशी उसके विद्रोह को दबा देता था और उसे क्षमा कर देता था। यह एक तरह का सामान्य आचरण हो गया था। इसमें पुलकेशी की ही दुर्बलता परिलक्षित होती है क्योंकि उसके अनुज ने अपने भाई की इस भावनात्मक कमजोरी का पूरी तरह से दुरुपयोग किया था।
पुलकेशी के चार पुत्र थे। न्यायपूर्ण तरीके से उसका स्नेह अपने तीसरे पुत्र के प्रति अधिक था जिसका नाम विक्रमादित्य था। इससे उसके अन्य पुत्रों में द्वेष भाव जाग गया और उन्होंने भी पुलकेशी के लिए समस्याऍ खडी कर दी। पुलकेशी ने पल्लव राजा महेन्द्रवर्मा को अपने असाधारण शौर्य से परास्त किया था। उसने पल्लवों की राजधानी कांचीपुर को जीत कर अपना विजय शंख बजाया था। जीतने के बाद भी पुलकेशी ने शहर में कोई अत्याचार नहीं किया था। निस्संदेह रूप से पुलकेशी की उदारता तथा सांस्कृतिक परिष्कार सदैव स्मरणीय तथा प्रशंसनीय रहेगा।
महेन्द्रवर्मा अपनी हार की क्रोधाग्नि में जल रहा था। उसने पुलकेशी से अपनी हार का बदला लेने के लिए अपने पुत्र नरसिंहवर्मा को एक लड़ाकू यंत्र की तरह प्रशिक्षित किया था। नरसिंहवर्मा ने एक बड़ा सैन्य बल खडा कर के पुलकेशी के शासन काल के अंतिम दिनों में वातापी (बादामी) पर आक्रमण कर दिया तथा विजय प्राप्त की। इस विजय से उसने ‘वतापिकोंड’ की उपाधि प्राप्त की। इसी नरसिंहवर्मा के शासन काल में मूर्तिकला तथा स्थापत्य का असाधारण आदर्श प्रतिरुप माम्मलपुर (आज का महाबलीपुर) का निर्माण किया गया। उसमें बदले की आग इतनी तीव्र थी कि उसने संपूर्ण वातापी को जलाकर राख कर दिया[3] ।
इस बात के पर्याप्त साक्ष्य है कि नरसिंह वर्मा ने वातापि शहर को तो जलाया किंतु उसने गुफा मंदिरों को सुरक्षित रखा। पल्लव लोग भी चालुक्यों की ही तरह सनातन धर्म को मानते थे। वस्तुतः पुलकेशी तथा नरसिंहवर्मा दोनो ही समान रूप से विष्णु भक्त थे। इसका यह तात्पर्य कदापि नही है कि वे शैव, जैन, बौद्ध आदि पंथो के प्रति असहिष्णु थे। पल्लवों की राजधानी कांची के द्वार सभी शैव, शाक्त, जैन, वैष्णव, बौद्ध के लिए पूर्ण रुपेण खुले हुए थे तथा वंहा सभी दार्शनिक विचारो और शास्त्रों का संरक्षण किया जाता था।
कांचीपुरम दण्डी, धर्मकीर्ति, शारदातनय तथा अन्य महान कवि विद्वानों का कर्म क्षेत्र रहा है। पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मा स्वयं ख्यात कवि तथा संस्कृत की हास्य कृति ‘मत्तविलासप्रहसन’ का लेखक था। कांची संस्कृति तथा अध्ययन का विश्व विख्यात केन्द्र रहा है[4]।
जब हम पुलकेशी के जीवन का परीक्षण करते है तो हमें समझ में आता है कि किस विशिष्ट अवसर पर उसका क्षात्र भाव असफल रहा। वह था उसका अपने परिवार के प्रति आसक्ति भाव। राम का पारिवारिक प्रेम संतुलन से युक्त था वही पुलकेशी के जीवन में पारिवारिक आसक्ति अतिरेक की सीमा पार कर गई थी।
उसकी तुलना हम युधिष्ठिर द्वारा अपने दुष्ट चचेरे भाइयों के प्रति पारिवारिक आसक्ति से कर सकते हैं। महाभारत के घोषयात्रा प्रकरण में दुर्योधन को गंधर्वों ने बंदी बना कर बुरी तरह से पीटा था, तब उसे अर्जुन तथा अन्य पाण्डवों ने मुक्त कराया था। इस अवसर पर भीम के इस कथन पर – ‘गंधर्वो ने जो किया है वह हमें करना चाहिए था’, युधिष्ठिर ने अपनी असहमति व्यक्त करते हुए दुर्योधन को क्षमा कर दिया था।
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]नमस्तुङ्गशिरश्चुम्बिचन्द्रचामरचारवे | त्रैलोक्यनगरारम्भमूलस्तंभायशंभवे ||
[2]तेलगू के प्रख्यात लेखक नोरी नरसिंह शास्त्री ने कवि-सर्वभौम श्रीनाथ के जीवन पर एक अत्यंत रोचक उपन्यास ‘कविसार्वभौमुडु’ लिखा है। कवि सार्वभौम श्रीनाथ आंध्र के कोण्डवीडु राजवंश के राजा पेदकोमटी वेमारेड्डी के दरबारी कवि थे। उस समय विजयनगर साम्राज्य के सम्राट प्रोढदेवराय द्वितीय थे और उनके दरबारी कवि अरुणगिरीनाथ डिण्डिम भट्टारक थे जिन्हे कवि सार्वभौम की उपाधि भी दी गई थी। विजयनगर साम्राज्य के प्रभाव के कारण वेमारेड्डी की राज्य संपदा तथा सीमा क्षेत्र कम होता जा रहा था किंतु वह शक्तिशाली विजयनगर साम्राज्य का सामना नहीं कर सकता था अतः उसने नैतिक आधार पर सांस्कृतिक क्षेत्र में विजयनगर को हराने का उपाय खोज कर अपने दरबारी कवि श्रीनाथ को विजयनगर दरबार में शास्त्रार्थ हेतु भेजा। वहां श्रीनाथ ने अपने अलंकार शास्त्र के ज्ञान द्वारा विजयनगर के दरबारी कवि डिण्डिम भट्टारक को परास्त कर दिया। परिणामस्वरूप उसे सम्राट देवराय के दरबार में मोतियों के पण्डाल में बैठाकर उसका ‘कनकाभिषेक’ किया गया।
इस संपूर्ण घटना का विवरण नोरी नरसिंह शास्त्री ने अपने उपन्यास में अति सुन्दर ढंग से किया है। यह अपनी हार का बदला लेने का सकारात्मक तरीका भी है। जब हम भौतिक रूप से विजय पाने में असमर्थ हों तो कपट, छल और धोखा देने के स्थान पर अपने विरोधी को बुद्धि कौशल से पराजित करना अधिक अच्छा है।
[3]आज भी वातापी के निवासी गुफ मंदिरों की दीवार पर जमी कालिख को वातापीकोंदन के अत्याचारी कृत्य के साक्ष्य रुप में दिख लाते है। किंतु मेरे मतानुसार उसने केवल शहर में ही आग लगाई थी न कि गुफा मंदिरों में। जब हम बादामी के आर्कियोलोजिकल सर्वे ऑफ इन्डिया के म्युसियम को देखते है तो हमें स्पष्ट हो जाता है कि आज से अस्सी या सौ वर्षों पूर्व यह गुफा मंदिर कैसे थे। हमारे अनपढ़ भोले देहातियों ने इन गुफाओं को पशुओं तथा गधों का आश्रय स्थल के रूप में उपयोग करते हुए वहां कच्चे मकानों का निर्माण कर रसोईघर के रूप में उनका किया था जिसके परिणाम स्वरुप वंहा धुँए की कालिमा जम गई है।
[4]इस परिप्रेक्ष्य में नास्तिक इतिहासकारों का यह मनगढंत तर्क कि ‘हिन्दुओं ने भी अपने मंदिरों को नष्ट किया था न कि केवल मुस्लिम सुल्तानों ने’ पूर्णतः बचकाना कृत्य लगता है ।