कंपण द्वितीय का उत्तराधिकारी देवराय प्रथम था और उसका पुत्र विख्यात देवराय द्वितीय अथवा प्रौढ़देवराय था जो प्रौढप्रतापी’ की उपाधि से सम्मानित था। उसने बचे हुए दुश्मनों का सफलतापूर्वक मुकाबला किया। उसने विजयनगर साम्राज्य की सीमाओं को और सुदृढ़ करते हुए नौसेना की शक्ति को भी बढ़ाया । उसने गोवा तक फैले समुद्री तट को पुनर्जीवित कर नये बंदरगाह तथा मालगोदामों का निर्माण करवाया। उसकी सेना का नेतृत्व आक्रामक लकण्ण दण्डेश कर रहा था। उसने पूरे साम्राज्य में एक नव चेतना का जागरण अभियान चलाकर लोगों को जागृत किया। उसने कला, साहित्य, धर्मशास्त्रों तथा विद्वानों को प्रश्रय तथा उदार सहयोग देकर ब्राह्म – क्षात्र समन्वय का आदर्श प्रस्तुत किया था।
कृष्णदेवराय
विजयनगर साम्राज्य के महान सम्राटों में से एक कृष्णदेवराय भी है। गंग, गजपतियों तथा बहमनियो के विरुद्ध उसने जो भी युद्ध लडे उसमें वह सदैव विजयी रहा। अपने शासन के अन्त काल तक उसके शत्रु उसके नाम से ही भयभीत हो जाते थे। कहा तो यह भी जाता है कि उसकी मृत्यु के बाद भी यह डर बना रहा। कृष्णदेवराय की मृत्यु पर अल्लसानी पेद्दन ने अपनी एक चाटुकविता में लिखा है कि विजयनगर पर आक्रमण करने आये बहमनी मात्र विजयनगर के नागरिकों के घोर जयघोष को सुनते ही इधर उधर बिखर कर भाग गये। अपने बीस वर्ष के शासन काल में कृष्णदेवराय ने हिमालय की ऊंचाइयों के समतुल्य उपलब्धियां प्राप्त की थी। वह लम्बे समय तक युद्ध लडता रहा। उसने रायचूर के ऐतिहासिक युद्ध में बहमनी सुल्तान को बुरी तरह से पराजित किया था जिससे जितने भी हिन्दू तथा अहिन्दू शत्रु थे वे उनके शौर्य से डरने लगे थे। यद्यपि कृष्णदेवराय ने पुर्तगालियों से व्यापारिक संबंध बना रखे थे ताकि वंहा से युद्ध हेतु अश्वसेना तथा नवीनतम उपकरण प्राप्त किये जा सके तथापि किन्ही कारणों से स्थानीय स्तर पर वह इस कौशल को विकसित नहीं कर पाया। फिर भी उसका सैन्य संगठन, सैन्य अनुशासन, विकसित रणकौशल ऐसा था कि कृष्णदेवराय का क्षात्र, तिम्मरसु के ब्राह्म के साथ मिल कर बड़ा फलदायी सिद्ध हुआ। एक बार तो कृष्णदेवराय अपने युद्ध अभियान से चार वर्षों बाद वापस लौटा था।
पुर्तगाली यात्री फर्नाओ नून्स ने कृष्णदेवराय की रायचूर विजय का बडा ही आकर्षक और विस्तृत चित्रांकन करता विवरण दिया है। नून्स लिखता है कि शत्रु के किले पर अधिकार कर लेने के बाद भी कृष्णदेवराय ने छत पर लगे लकड़ी के भारी पाटों (गर्डर) को हारे हुए लोगों की मदद से निकलवा कर उन्हें अपनी सेना के ईंधन हेतु प्राप्त किया तथा न तो किसी को मारा और न किसी को सताया और न उन्हें कोई हानि पहुंचाई। यह कृष्णदेवराय की उदारता का एक अति सुन्दर उदाहरण है तथा इससे हमारे पारम्परिक क्षात्र भाव की आंतरिक धर्म आस्था का एक प्रखर लक्षण परिलक्षित होता है। इसके विपरीत जिस मुगल सम्राट अकबर को “अत्यंत सुसंस्कृत तथा संवेदन शील” दर्शाया जाता है उसने चितोड़ जीतने के बाद पूरे शहर में आग लगादी थी, सारे शहर में लूटपाट मचादी थी और निर्दोष नागरीकों का नरसंहार किया था। इस अत्याचार पूर्ण तथ्य को उसके दरबारी कवि अबुल फजल ने बडे गर्व से लिखा है। हिन्दू राजाओं की क्षात्र चेतना और उनके अत्याचारी मुस्लिम प्रतिद्वंदियों के संबंध में अनेक तुलनात्मक अध्ययन किये गये है और ऐसे और भी किये जाने की आवश्यकता है। अपनी इस निर्दयता के बाद भी अकबर को ‘अकबर महान’ का संबोधन दिया गया है जिससे कृष्णदेवराय जैसे अनेक हिंदू सम्राट वंचित किये गये है और यही हमारे इतिहास की विडम्बना पूर्ण स्थिति है। अद्यतन अध्ययनों ज्ञात होता है कि कृष्णदेवराय की सबसे बड़ी दुर्बलता उसका अपने पुत्र के प्रति तीव्र आसक्ति भाव था। एक विद्वान गोपालकृष्ण ने कृष्णदेवराय पर गहन शोध करते हुए लिखा है कि उसका पुत्र तिरुमलराय एक अपरिपक्व बालक था जिसको बचपन में ही राज्याभिषेक कर दिया गया था। यह अफवाह कि मंत्री तिम्मरसु ने उस बालक को जहर दिया था, झूठ सिद्ध हुई है। उस बालक की मृत्यु के उपरांत पुत्र शोक से व्यथित कृष्णदेवराय का पूरा उत्साह समाप्त हो गया।
तिम्मरसु इस धारणा से पूर्णतः आश्वस्त था कि जो भी राजा सिंहासनारूढ़ हो उसे सब प्रकार से दृढ़ता युक्त दक्षता से संपन्न होना चाहिए। इस प्रकार राजवंश में पारिवारिक उत्तराधिकार का प्रश्न समाप्त हो जाता है। फिर भी राजाओं में सदैव से यह इच्छा रही कि उनके ही वंशज शासनासीन हों। यहीं हमें पारिवारिक जन्म के कारण बने क्षात्र और कर्म, चरित्र, प्रकृति तथा योग्यता के आधार पर बने सच्चे क्षात्र का अन्तर स्पष्ट हो जाता है।
अपनी सर्वोत्तम कृति ‘आमुक्तमाल्यदा’ में कृष्णदेवराय एक स्थान पर लिखते हैं कि – “एक क्षत्रिय को कभी अपना प्रधानमंत्री या सेनापति नहीं बनाना चाहिए क्योंकि इसमें सदैव इस बात की आशंका बनी रहती है कि वह किसी भी दिन राजा को हटा कर स्वयं शासन पर अधिकार कर ले” । निश्चित रूप से यह हिन्दू समाज के लिए अच्छा संकेत नहीं है। पुत्र शोक में कृष्णदेवराय प्रौढ़ावस्था में ही मर गया। वह पचास की आयु पार कर पाया था।
अपने शासन काल में विभिन्न दबावों के मध्य भी कृष्णदेवराय की उपलब्धियां जो राजनैतिक तथा सांस्कृतिक स्तर पर थी, आश्चर्यजनक थी ! वह स्वयं उच्च कोटि का विद्वान था। उसकी रचित प्रख्यात कृतियों में ‘आमुक्तमाल्यदा’, ‘सकलकथासारसंग्रह’ और ‘मदालसाचरित्रचम्पू’ सम्मिलित हैं। वह संस्कृत तथा तेलगू दोनों भाषा का सक्षम कवि था तथा उसने सदैव कवियों तथा विद्वानों को शरण दी थी[1] ।
यद्यपि वह स्वयं एक दृढ़ विष्णु भक्त था फिर भी उसने विरुपाक्ष और कालहस्तीश्वर मंदिरों के गोपुरों का निर्माण करवाया था। उस समय भाषई कट्टरवाद तथा सांप्रदायिक द्वेष भाव का विजयनगर साम्राज्य में अस्तित्व ही नही था। भारतीय क्षात्र परम्परा के अध्ययन में यह एक मुख्य तत्त्व देखने में आता है कि सांस्कृतिक स्तर पर शत्रुता तथा उथल पुथल का अभाव रहा है। किसी भी मुख्य ऐतिहासिक काल को देखे तो यद्यपि रणनीति तथा सभी दांवपेंचो की सम्भावनों के साथ कभी भी उदारता, नैतिक व्यवहार तथा स्नेह का कभी भी अभाव नहीं रहा। फिर भी जीवभक्षी तथा पैगंबरी आस्था वाले संप्रदायों ने इन गुणों का सम्मान करना तो दूर, इन पर ध्यान ही नही दिया !!
To be continued...
The present series is a Hindi translation of Śatāvadhānī Dr. R. Ganesh's 2023 book Kṣāttra: The Tradition of Valour in India (originally published in Kannada as Bharatiya Kshatra Parampare in 2016). Edited by Raghavendra G S.
Footnotes
[1]दुर्भाग्य से आजकल यह आधार हीन हल्ला गुल्ला युक्त दावा किया जा रहा है कि कृष्णदेवराय ने कन्नड़ लोगों के साथ अन्याय किया था। इसका कोई भी ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। हरिदास आंदोलन के दिशा निर्देशक व्यासराज को स्वयं कृष्णदेवराय ने विजयनगर के सिंहासन पर बैठाकर सम्मानित किया था – यह तथ्य ‘व्यासयोगीचरित’ में लिखा हुआ है। उसने समान रूप से पुरंदरदास तथा कनकदास का भी सम्मान किया था। यह राजसी सम्मान उनके प्रति आदर भाव की अभिव्यक्ति थी अन्यथा पूर्ण निवृत सन्यासियों को सांसारिक वैभव से क्या लेना देना ? तिरुपति स्थित वेंकटेश्वर प्रतिमा पर भी कन्नड़ में ‘कृष्णदेवरायरु’ शब्द उत्कीर्ण है। वास्तव में हरिदास आंदोलन को कृष्णदेवराय का अपार सहयोग प्राप्त हुआ था। जब उसने श्रीकाकुल के विरुद्ध अपना अभियान चलाया तो स्वप्न में उसे आंध्र महाविष्णु ने ‘कन्नडराय’ (कन्नड देश का सम्राट) कहकर संबोधित किया था। इस बात को स्वयं कृष्णदेवराय ने अपनी कृति ‘आमुक्तमाल्यदा’ में (1.14) लिखा है। उसे ‘कन्नडरमारमण’ की उपाधि भी दी गई थी। उसके अधिकांश राजसी अभिलेख कन्नड़ भाषा में लिखे गये थे।